४ ][ पंचस्तोत्र
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारूकलिकानिकरैकहेतुः ।।६।।
शास्त्रज्ञ अज्ञ गणीने हसतां छतांये,
भक्ति तमारी ज मने बळथी वदावे!
जे कोकिला मधुर चैत्र विषे उचारे,
ते मात्र आम्रतरुमहोर तणा प्रभावे! ६.
भावार्थ : — प्रभो! मारुं शास्त्रज्ञान घणुं थोडुं छे तेथी विद्वानो
समक्ष हुं हांसीने पात्र छुं तोपण आपनी भक्ति ज मने आपनी स्तुति
करवा बळात्कारथी प्रवर्तावे छे. जेम चैत्र मासने विषे आंबाना महोरना
प्रभावथी कोयल मधुर शब्दो उच्चारे छे ते प्रमाणे आपनी भक्ति ज मने
आपनी स्तुति करवाने प्रेरे छे. ६.
त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।।
आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।।७।।
बांधेल पाप जननां भव सर्व जेह;
तारी स्तुतिथी क्षणमां क्षय थाय तेह;
आ लोकव्याप्त निशिनुं भमरा समान,
अंधारूं सूर्यकिरणोथी हणाय जेम. ७.
भावार्थ : — नाथ! जेम सूर्यनां किरणोथी त्रण जगतमां फेलायेला
भमरा समान काळो अंधकार नष्ट थई जाय छे, तेम आपनी स्तुति
करवाथी जन्मोजन्ममां एकठां थयेलां जीवोना पापो क्षणभरमां नष्ट थई
जाय छे. ७.