भक्तामरस्तोत्र ][ ७
यैः शान्तरागरूचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं नहि रुपमस्ति ।।१२।।
जे शांतराग रुचिनां परमाणु मात्र,
ते तेटलां ज भुवि आप थयेल गात्र;
ए हेतुथी त्रिभुवने शणगार रूप,
त्हारा समान नहि अन्यतणुं स्वरूप. १२.
भावार्थ : — हे, त्रिभुवनना एक भूषण! जे राग रहित
परमाणुओथी आपनुं शरीर बन्युं छे, ते परमाणुओ संसारमां एटला
ज छे. तेथी ज संसारमां आपना समान सुंदर बीजुं कोईनुं रूप होतुं ज
नथी. १२.
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम् ।
बिंबं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।।१३।।
त्रैलोक सर्व उपमाने जे जीतनारुं,
ने नेत्र, देव – नर – उरग हारी तारुं,
क्यां मुख क्यां वळी कलंकित चंद्रबिंब,
जे दिवसे पीळचटुं पडी जाय खूब. १३.
भावार्थ : — हे गुणसमुद्र! दुनियानी सर्वे उपमाने जीतवावाळा,
एवा सुंदर के जेनी उपमा दुनियाना कोई पण पदार्थथी आपी शकाय नहीं;
वळी जेने देव, मनुष्य, धरणेंद्र वगेरेनी आंखोने पोतानी तरफ आकर्षित
करवावाळा पण घणी उत्कंठाथी जुए छे एवुं आपनुं त्रण भुवनमां अति
सुंदर मुख क्यां अने कलंकित चंद्रमा क्यां? के जे दिवसमां फिक्को पडी