१८ ][ पंचस्तोत्र
छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांत –
मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् ।
मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभं
प्रख्यापयन्निजगतः परमेश्वरत्वम् ।।३१।।
ढांके प्रकाश रविनो, शशितुल्य रम्य,
मोती समूह रचनाथी दीपायमान;
एवां प्रभुजी तमने त्रण छत्र शोभे,
त्रैलोकनुं अधिपतिपणुं ते जणावे. ३१.
भावार्थ : — हे भगवान्! तारा सहित चंद्रमा जेवा मनोहर,
सूर्यनां किरणना तापनुं निवारण करनार अने मोतीओना समूहनी रचनाथी
शोभायमान, एवा आपना उपर रहेलां त्रण छत्रो शोभी रह्यां छे ते जाणे
जगतमां आपनुं अधिपतिपणुं जाहेर करतां होय एम शोभे छे. ३१.
गंभीरताररवपूरितदिग्विभाग –
स्त्रैलोकयलोकशुभसंगमभूतिदक्षः ।
सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्,
खे दुंदुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ।।३२।।
गंभीर ऊंच स्वरथी पुरी छे दिशाओ,
त्रैलोकने सरस संपद आपनारो;
सद्धर्मराज जयने कथनार खुल्लो,
वागे छे दुंदभी नभे यशवादी तारो. ३२.
भावार्थ : — हे नाथ! जेणे पोताना गंभीर अने मनोहर शब्दो
वडे दिशाओने शब्दमय करी दीधी छे, त्रिभुवनना प्राणीओने उत्तर
वस्तुओ प्राप्त कराववामां समर्थ छे, जे सद्धर्मराज अर्थात् परम भट्टारक,
तीर्थंकर भगवाननी संसारमां जयघोषणा करी रह्या छे, अर्थात् ए बतावी