२० ][ पंचस्तोत्र
कान्तिने जीतवावाळी, आपनी तेजस्वी प्रभामंडळनी अनंत प्रभा त्रणे
जगतना तेजस्वी पदार्थोना तेजने झांखुं पाडे छे ते आपनी कान्ति
एकसाथ उगेला अनेक सूर्योनी माफक तेजस्वी छे, अने चंद्रना जेवी
शीतळ चांदनी रातने पण पराजित करे तेवी छे अर्थात् आपनी प्रभा
सूर्यथी पण अधिक तेजस्वी होवाथी लोकोने संताप करती नथी अर्थात् ते
बहु ज शीतळ छे. ३४.
स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः ।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व –
भाषास्वभावपरिणामगुणैः प्रयोज्यः ।।३५।।
जे स्वर्ग - मोक्षसम मार्ग ज शोधी आपे,
सद्धर्म तत्त्वकथवे पटु त्रैण लोके;
दिव्यध्वनि तुज थतो विशदार्थ सर्व,
भाषा - स्वभाव - परिणाम गुणोथी युक्त. ३५.
भावार्थ : — हे नाथ! स्वर्ग अने मोक्षना मार्गने बतावनारा तथा
त्रिभुवनना लोकोने श्रेष्ठ धर्म तत्त्वनो उपदेश करवामां समर्थ आपनी
दिव्यध्वनि स्वभावथी ज बधी भाषाओमां परिणमी जाय छे तेथी
संसारना बधा प्राणीओ पोतपोतानी भाषाओमां तेने विस्तारपूर्वक समजी
जाय छे ए आपनो अचिंत्य प्रभाव छे. ३५.
उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकांती —
पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ ।
पादौ पदानी तव यत्र जिनेंद्र धत्तः
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।।३६।।
खीलेल हेम कमळो सम कान्तिवाळा,
फेली रहेल नख – तेज थकी रूपाळा;