भक्तामरस्तोत्र ][ २१
एवा जिनेन्द्र तुम पाद डगो भरे छे,
त्यां कल्पना कमळनी विबुधो करे छे. ३६.
भावार्थ : — हे जिनेन्द्र! सुवर्णना नवा खीलेलां कमळोना समूहनी
कान्ति जेवी प्रसरी रहेला नखोना किरणोनी पंक्ति वडे जे सुंदर देखाय
छे एवा आपना चरणो पृथ्वी उपर ज्यां ज्यां आप धरो छो, ते ते ठेकाणे
देवो सुवर्णकमळनी रचना करे छे. ३६.
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेंद्र !
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ।
याद्वक् प्रभा दिनकृतः प्रहतांधकारा
ताद्रक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ।।३७।।
एवी जिनेन्द्र थई जे विभूति तमोने,
धर्मोपदेश समये नहि ते बीजाने;
जेवी प्रभा तिमिरहारी रवितणी छे,
तेवी प्रकाशित ग्रहोनी कदि बनी छे? ३७.
भावार्थ : — हे जिनेन्द्र! समवसरण वखते जे प्रकारनी संपत्तिओ
धर्मनो उपदेश करती वखते आपने प्रगट थई तेवी अन्य देवो पैकी कोईने
कदी पण थई नहीं. ए साचुं छे के गाढ अंधकारनो नाश करवावाळा
सूर्यनी प्रभा जेवी प्रभा नक्षत्रोनी थती नथी. ३७.
श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल —
मत्तभ्रमद्भ्रमरनादविवृद्धकोपम् ।
ऐरावताभमिमुद्धतमापतंतं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ।।३८।।
व्हेता मदे मलिन चंचळ शिर तेवो,
गुंजारवे भ्रमरना बहु क्रोधी एवो;