Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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४४ ][ पंचस्तोत्र
भावार्थ :हे प्रभो! आपना समस्त कर्म नष्ट थई गया छे तो
पछी तेमनो विपाक क्यांथी होय? छतां पण आप भव्य जीवोने संसार
समुद्रथी पार उतारी द्यो छो ए ज मोटुं आश्चर्य छे केम के जे घडो विपाक
सहित (पकावेलो) होय ते ज तेना उपर बेठेलाने पाणीमां तारी शके छे
परंतु आप तो विपाकरहित होवा छतां तारो छो ए ज आपनो अचिंत्य
महिमा छे. २९.
विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं,
किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश
अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फु रति विश्वविकासहेतु
।।३०।।
तुं विश्वेशो दुरगत छतां लोकरक्षी! कहावे!
वा स्वामी! तुं अलिपि तदपि अक्षर स्वस्वभावे!
अज्ञानीमां तम महिं नकी सर्वदा को प्रकार,
ज्ञान स्फुरे त्रण जगतने हेतु उद्योतनार!!! ३०.
अर्थ :हे जगपालक! आप त्रिभुवनपति होवा छतां पण दरिद्र
छो, अक्षर स्वभावी होवा छतां पण लिपिथी लखी शकाता नथी, अज्ञानी
होवा छतां पण त्रण लोकना पदार्थोनो प्रकाश करनार ज्ञान आपनामां
सदैव स्फुरायमान रहे छे. ३०.
भावार्थ :अहीं विरोधाभास अलंकार छे. जेमां शब्दनो विरोध
लागवा छतां पण वास्तवमां तत्त्वद्रष्टिए विरोध न होय तेने विरोधाभास
अलंकार कहे छे. उपरना श्लोकमां देखाडेल विरोधनो परिहार आ प्रमाणे
छे. हे भगवन् ! आप त्रिभुवननाथ छो अने कठिनताथी जाणी शकाव छो.
एनो बीजो अर्थ आ रीते पण छे
(हे जनप ! विश्वेश्वरोऽपि
अलकदुर्गतः) हे जगत्पति ! आप विश्वपति छो अने केशरहित छो.
तीर्थंकर भगवानने दीक्षा पछी केश वधता नथी, एवो नियम छे. आप
मोक्षस्वरूप छो अने निराकार होवाना कारणे जोई शकाता नथी अथवा