Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 51 of 105
PDF/HTML Page 59 of 113

 

background image
कल्याणमंदिरस्तोत्र ][ ५१
यद्यस्ति नाथ भवदंध्रिसरोरूहाषां,
भक्तेः फलं किमपि सन्ततसञ्चितायाः
तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि
।।४२।।
त्हारा पदाब्जतणीसंततिथी भरेली,
भक्तितणुं कंईय जो फल विश्वबेली!
तो तुं ज एक शरणुं जस एह मुज,
हो शर्ण आ भव भवांतरमांय तुं ज! ४२.
अर्थ :हे प्रभुवर! केवळ आपनुं ज शरण लेनार एवा मने,
चिरकाळथी संचित करेली आपना चरणकमळोनी भक्तिनुं जो कांई पण
फळ मळे तो हे अशरणोने शरण आपनार! ते एटलुं ज हो के आ लोक
अने परलोकमां पण आप ज मारा स्वामी हो अर्थात् मारो आत्मा
आपना समान शुद्ध अने पूर्ण थई जाय. ४२.
इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र,
सान्द्रोल्लसत्पुलक कञ्चुकिताङ्गभागाः
त्वद्विम्बनिर्मलमुखाम्बुजबद्धलक्ष्या,
ये संस्तवं तव विभो स्वयन्ति भव्याः
।।४३।।
जननयनकुमुदचन्द्र,
प्रभास्वराः स्वर्गसमादो भुक्त्वा
ते विगलितमलनिचया,
अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते
।।४४।।
रे! आम विधिथी समाधिमने उमंगे,
रोमांच कंचुक धरी निज अंगअंगे;
सद्दबिब्ब निर्मळ मुखांबुज द्रष्टि बांधी,
भव्यो रचे स्तवन जे तुज भक्ति सांधी. ४३.