५४ ][ पंचस्तोत्र
तुम जिन जोतिस्वरूप दुरितअंधियारिनिवारी,
सो गणेश गुरू कहैं तत्त्वविद्याधनधारी;
मेरे चितघरमाहिं बसौ तेजोमय यावत्,
पापतिमिर अवकाश तहां सो क्योंकरि पावत. २.
अर्थ : — हे जिनवर! दीर्घ तत्त्वज्ञानीओ आपने एवा ज्योतिरूप
बनावे छे के जे पाप – समूहरूप अंधकारना विनाशना हेतु छे. जो आप
मारा हृदय – मंदिरमां खूब प्रकाशित थई रह्या छे तो पछी तेमां पापरूपी
अंधकार वास्तवमां केवी रीते टकी शके? जो पाप टकी शकतुं न होय तो
पापनुं फळ एवुं दुःख पण रही शके नहि. २.
आनन्दाश्रु – स्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढमनाः स्तोत्रमन्त्रैः भवन्तम् ।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह – वल्मीकमध्यान् –
निष्कास्यन्ते विविध – विषम – व्याधयो काद्रवेयाः ।।३।।
आनंद आंसूवदन धोय तुमसों चित सानै,
गदगद सुरसो सुयशमंत्र पढि पूजा ठानैं;
ताके बहुविध व्याधि व्याल चिरकाल निवासी,
भाजैं थानक छोड देहबांबई के वासी. ३.
अर्थ : — हे जिनेन्द्रदेव! आपमां चित्तनी स्थिरता करीने जे
भक्तजन आनंदना अश्रुओथी जेनुं मुख धोवायुं छे ते गदगद स्वरे
स्तोत्र – मंत्रो द्वारा आपनी पूजा करे छे तेना शरीररूपी राफडामांथी जुदी
जुदी जातना विषम रोगरूप सर्पो बहार नीकळी जाय छे के जे तेमां
चिरकाळथी रहेवाना अभ्यासी हता. ३.
प्रागेवेह त्रिदिव – भवनादेष्यता भव्य – पुण्यात्
पृथ्वी – चक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् ।