कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ५७
अर्थ : — हे भगवान्! आपना विहार द्वारा त्रण लोकने पवित्र
करतां आपना चरणोना निक्षेप (मूकवा) मात्रथी कमळो सुवर्णनी
आभासहित, सुगंधित अने श्रीलक्ष्मीनुं निवासस्थान थई जाय छे. (आम
वात छे त्यां) मारुं संपूर्ण मन जो ध्यानद्वारा आपनो सर्वांगे स्पर्श करे
छे तो पछी एवुं कयुं कल्याण छे के जे मने स्वयं प्रतिदिन प्राप्त न
थाय? – हुं बधा ज श्रेयो प्राप्त करवानुं पात्र छुं. ७.
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति – पात्र्या पिबन्तं
कर्मारण्यात्पुरूषमसमानन्दधाम – प्रविष्टम् ।
त्वां दुर्वार – स्मर – मदहरं त्वत्प्रसादैकभूमिं
क्रूराकाशः कथमिव रुजाः कण्टका निर्लुठन्ति ।।८।।
भवतज सुखपद बसे काममदसुभट संहारे,
जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे;
तुम वचनामृतपान भक्तिअंजुलिसों पीवै,
तिन्हैं भयानक क्रूररोगरिपु कैसे छीवै. ८.
अर्थ : — हे जिनराज! आप दुर्निवार कामदेवना मदने दूर
करनार छो अने कर्मरूप (दुःखदायक) वनमांथी नीकळीने अनुपम सुखनुं
स्थान जे मुक्तिधाम छे तेमां प्रवेशी चुक्या छो, आपनुं आवुं रूप
जोनारने, आपना वचनामृत भक्तिरूप कटोरीथी पीनारने अने आपनी
कृपा – प्रसादनी एक भूमि बनेला पुरुषने क्रूर आकृतिवाळा रोगरूपी
कांटा केवी रीते पीडित करी शके? कोई पण प्रकारे पीडा आपी शके
नहि. ८.
पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्नमूर्तिर् –
मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्गः ।
दृष्टि – प्राप्तो हरति स कथं मानरोगं नाराणां
प्रत्यासत्तिर्यथी न भवतस्तस्य तच्छक्ति हेतुः ।।९।।