५८ ][ पंचस्तोत्र
मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर,
एसे और अनेक रतन दीखैं जग अंतर;
देखत द्रष्टिप्रमान मानमद तुरत मिटावै,
जो तुम निकट न होय शक्ति यह कयों कर पावै. ९.
अर्थ : — हे जिनदेव! आपना समवसरणमां स्थित जे मानस्तंभ
छे ते पाषाणनो छे तेथी अन्य पाषाणो समान छे अने केवळ रत्नपाषाण –
निर्मित मूर्ति छे, तेवा रत्नो बीजा पण छे, तो पाछी ते मनुष्योना
मानरूपी रोगने दर्शनमात्रथी ज केवी रीते दूर करे छे, जो आपनी
समीपताना प्रभावथी ज तेमां ते शक्ति उत्पन्न न थती होय? अर्थात्
आपनी समीपताना प्रभावथी ज तेनामां तेवी शक्तिनो संचार थाय छे
के जे बीजा पाषाण तथा रत्नोमां होती नथी, माटे आपनो ज अपूर्व
महिमा छे. ९.
हृद्यः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति – शैलोपवाही
सद्यः पुंसां निरवधिरुजाधूलिबन्धं धुनोति ।
ध्यानाहूतो हृदय – कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टम् –
तस्याशक्यः क इह भुवने देव लोकोपकारः ।।१०।।
प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहै है,
तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर ह्वै है;
जाके ध्यानाहूत बसो उरअंबुजमांहीं,
कौन जगत उपकारकरन समरथ सो नाहीं. १०.
अर्थ : — हे जिनदेव! आपनी मूर्तिरूपी पर्वतने अडीने वहेतो
पवन पण अनुकूळपणे प्राप्त थईने मनुष्योना निःसीम रोगरूपी धूळना
समूहने शीघ्र खंखेरी नाखे छे तो पछी ध्यान द्वारा बोलावायेल आप जेना
हृदयकमळमां प्रवेश करो छो ते मनुष्य द्वारा एवो कयो लोकोपकार छे के
जे आ लोकमां अशक्य होय? १०.