कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ५९
जानासि त्वं मम भवभवे यच्च याद्रक् च दुःखं
जातं यस्य स्मरणमपि मे शसवन्निष्पिनष्टि ।
त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ।।११।।
जनम जनमके दुःख सहे सब ते तुम जानो,
याद किये मुझ हिये लगै आयुधसे मानों;
तुम दयाल जगपाल स्वामि मै शरन गही है,
जो कछु करनो होय करो परमान वही है. ११.
अर्थ : — हे जिनेन्द्रदेव! (आ चतुर्गतिरूप संसारमां अनादिकाळथी
भ्रमण करता) मने भवभवमां जे, जेटलुं अने जे प्रकारनुं दारूण दुःख
प्राप्त थयुं छे के जेनुं स्मरण पण मने शस्त्र आघातनी जेम कष्ट आपे
छे ते बधुं आप जाणो छो, आप सर्व रीते समर्थ छो, दयाळु छो तेथी
ज हुं भक्तिभावपूर्वक आपना शरणमां आव्यो छुं. हवे आ वर्तमान
दुःख – संतापना विषयमां जे कांई पण कर्तव्य होय ते ज मने प्रमाण छे
–
आप जे कांई पण करशो ते मने मान्य छे, में आपना उपर बधुं छोडी
दीधुं छे. ११.
प्रापद्रैव तव नुतिपदैर्जीवकेनोपदिष्टैः
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् ।
कः सन्देहो यदुपलभते वासव – श्री – प्रभुत्वं
जल्पन् जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ।।१२।।
मरन समय तुम नाम मंत्र जीवकतैं पायो,
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो,
जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर,
इन्द्रसंपदा लहै कौन संशय इस अंतर. १२.