६० ][ पंचस्तोत्र
अर्थ : — हे जिनेन्द्रभगवान! एक पापाचारी – आखी जिंदगी
पापमां लीन – कूतरो पण मरती वखते जीवक द्वारा कानमां जपवामां
आवेला आपना नमस्कार मंत्रना प्रभावथी देवगतिनुं सुख पाम्यो छे तो
पछी कोई निर्मळ मणिनी माळाथी आपना नमस्कारचक्रनो भावपूर्वक जाप
करतो थको मरीने इन्द्रनी विभूतिनो स्वामी बने एमां शो संदेह छे?
अर्थात् एमां कोई संदेहनो अवसर नथी. १२.
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिर्नाे चेदनवधिसुखावञ्चिका कुच्चिकेयम् ।
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो
मुक्ति – द्वारं परिदृढ – महामोह – मुद्रा – कपाटम् ।।१३।।
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै,
अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै;
सो शिववांछक पुरूष मोक्षपट केम उधारै,
मोह मुहर दिढ करी मोक्षमंदिरके द्वारै. १३.
अर्थ : — हे भगवान! शुद्ध ज्ञान अने निर्मळ चारित्र होवा छतां
पण जो मुमुक्षु जीवनी आपना प्रत्ये आ ऊंचा प्रकारनी भक्ति न होय
के जे अमर्यादित – अनंत सुख प्राप्तिनी अचुक कूंची छे — तो ते मुक्तिनुं
द्वार केवी रीते खोली शकशे के जे सुद्रढ महामोहनी मुद्रा युक्त ताळावाळा
द्वारथी बंध छे? अर्थात् नहि खोली शके. १३.
प्रच्छन्नः खल्वयमद्यमयैरन्धकारैः समन्तात्
पन्था मुक्तेः स्थफु टितपदः क्लेशगर्तैरगाधैः ।
तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती – रत्नदीपः ।।१४।।
शिवपुरकेरो पंथ पापतमसो अतिछायो,
दुखसरूप बहु कूपखाड सों विकट बतायो;