कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६१
स्वामी सुखसों तहां कौन जन मारग लागैं,
प्रभु प्रवचन मणिदीप जोन के आगैं आगैं. १४.
अर्थ : — हे जिनदेव! मुक्तिनो आ मार्ग बधी बाजुथी पापरूप
अंधकारथी – मिथ्यादर्शनादिरूप तिमिरपटलोथी – आच्छादित छे अने बहु
ऊंडा क्लेशकारी खाडाओ द्वारा – नरक, निगोदादिना दुःखोथी पूर्ण स्थानोथी
ऊबड – खाबड विषम स्थान बनेल छे; त्यां कयो मनुष्य सुखपूर्वक ते मार्ग
उपर चाली शके? जो यथार्थ वस्तुतत्त्वनो प्रकाशक आपना वचनरूप रत्न –
दीपक आगळ आगळ न चालतो होय. भावार्थ एम छे के आपनी
वाणीनो प्रकाश पाम्या विना कोई पण मनुष्य ते मुक्तिना मार्ग पर
सुखपूर्वक चालवामां समर्थ थई शके नहि. १४.
आत्मज्योतिर्निधिरनवधिर्द्रष्टुरानन्दहेतुः
कर्म – क्षोणी – पटल – पिहितो योऽनवाप्यः परेषाम् ।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्ति – भाजः
स्तोत्रैर्बन्ध – प्रकृति – परुषोद्दाम – धात्री – खनित्रैः ।।१५।।
कर्मपटलभूमाहिं दबी आतमनिधि भारी,
देखा अतिसुख होय विमुखजन नाहिं उधारी;
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै,
थुति कुदालसों खोद बंद भू कठिन विदारे. १५.
अर्थ : — आत्मज्योतिरूप निधि अमर्यादितरूपे स्थित छे तेनो
क्यांय अंत नथी – ज्ञानावरणादि कर्मरूप पृथ्वीना पडोथी ते आच्छादित छे,
जोनारने आनंदनुं कारण छे – दर्शनमात्रथी जेना आनंदनो उद्भव थाय छे
अने जे बीजाओ द्वारा – अभक्त हृदयो द्वारा अप्राप्य छे, तेने आपना
भक्तो तरत ज ते स्तोत्रो द्वारा प्राप्त करी ले छे के जे ( प्रकृति, स्थिति,
अनुभाग – प्रदेशरूप) द्रढ बंधनप्राप्त कठोर अने अति उग्र (कर्मरूप)
भूमिने खोदवामां समर्थ तीक्ष्ण कोदाळी समान छे. १५.