६२ ][ पंचस्तोत्र
प्रत्युत्पन्ना नय हिमगिरेरायता चामृताब्धे -
र्या देव त्वत्पद – कमलयोः संगता भक्ति - गंगा ।
चेतस्तस्यां मम रूचिवशादाप्लुतं क्षालितांहः
कल्माषं यद्भवति किमियं देव सन्देह – भूमि ।।१६।।
श्याद्वादगिरि उपजै मोक्ष सागर लों धाई,
तुम चरणांबुज परस भक्तिगंगा सुखदाई;
मो चित्त निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामैं,
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं. १६.
अर्थ : — हे जिनदेव! आपना चरणकमळोने प्राप्त थयेली जे
भक्ति – गंगा छे ते (स्याद्वाद) नयरूप हिमालयमांथी उत्पन्न थईने
प्रवाहित थई अमृतसागररूप मोक्षमां जईने मळी छे. तेमां मारुं मन
स्वरुचिथी डूबकी लगावीने जो पापरूप मेलने धोई नाखे तो एमां शुं कोई
संदेह करवा जेवी वात छे? जरा पण संदेह करवा योग्य वात नथी. १६.
प्रादुर्भूत – स्थिरपद – सुख त्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरूपत्पद्यते निर्विकल्पा ।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभ्रेषरूषां
दोषात्मनोऽप्यनिमतफलास्त्वत्प्रसादाद्भवन्ति ।।१७।।
तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो,
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो;
यदपि जूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै,
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै. १७.
अर्थ : — स्थिर पदना सुखनी प्रगटता पामेल हे जिनेन्द्र
भगवान! आपनुं ध्यान करतां मने आपना विषयमां सोऽहंनी निर्विकल्प
बुद्धि – जे आप छो तेज हुं छुं एवी निःसंशय बुद्धि उत्पन्न थई छे. आ