कल्याण-कल्पद्रुम-एकीभाव स्तोत्र ][ ६५
वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति झांई,
तातैं युति आलाप नाहिं पहुंचै तुम तांई;
तो भी निर्फल नाहिं भक्तिरसभीने वायक,
संतनको सुरतरु समान वांछित वरदायक. २१.
अर्थ : — हे भगवन्! वचनोनी प्रवृत्ति अपरसद्रश छे – अचेतन
पुद्गल जेवी छे अने आप अन्यसम – पुद्गलरूप नथी तेथी अमारा
स्तुतिरूप वचनो आपनी पासे केवी रीते पहोंची शके? न पहोंची शके;
परंतु भले न पहोंचे छतां पण भक्तिरूप सुधारसथी पुष्ट थयेला आ
स्तुतिरूप उद्गार भव्यजीवोने माटे अभिष्ट फळ आपनार कल्पवृक्ष समान
बने छे. २१.
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देवप्रसादो
व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षम् ।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधिर्वैर – हारी
क्वैंवंभूतं भुवनतिलक प्राभवं त्वत्परेषु ।।२२।।
कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहू नहिं धारो,
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो;
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये,
यह प्रभुता जग तिलक कहां तुम विन सरदहिये. २२.
अर्थ : — हे त्रिभुवनतिलक देव! आप कोईना पण उपर क्रोध
करता नथी अने कोईना पण उपर प्रसन्नतानो भाव पण प्रगट करता
नथी. वास्तवमां आपनुं चित्त जे कोईनी अपेक्षा राखतुं नथी ते सदा परम
उपेक्षाथी – वीतरागताथी व्याप्त रहे छे. आम होवा छतां पण आ लोक
आपनी आज्ञाने आधीन छे अने आपनुं सामीप्य वेरने दूर करे छे –
आपनी समीप आवतां जातिविरोधी जीवोनुं वेर चाल्युं जाय छे, कोई एक
बीजाने द्वेषभावथी जोतुं नथी. आवी जातनो प्रभाव आपनाथी भिन्न
कोपादियुक्त सराग देवोमां क्यां होय? क्यांय न होय २२.