Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७२ ][ पंचस्तोत्र
अगाधताब्धेः स यतः पयोधि
र्मेरोश्च तुङ्गा प्रकृति स यत्र
घावापृथिव्यो पृथुता तथैव,
व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि ।।।।
अर्थ :हे जिनेश्वर! समुद्रनी ऊंडाई समुद्र सुधी ज सीमित
छे अने मेरु पर्वतनी ऊंचाई मेरु पर्वत सुधी ज सीमित छे अने
आकाश तथा पृथ्वीनी विशाळता पण तेमना सुधी ज सीमित छे परंतु
आपनी धीरज, उन्नत प्रकृति अने उदारता समस्त लोकालोकमां व्यापी
रही छे. ८.
तवानवस्था परमार्थतत्त्वं,
त्वया न गीतः पुनरागमश्च
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषी
र्विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वं ।।।।
अर्थ :हे जिनेन्द्रदेव! आपना शासनमां परमार्थतत्त्व
(निश्चयतत्त्व) अनवस्था (अनियतस्थिति अथवा परिवर्तनशीलता) छे तथा
आपे अनवस्था (परिवर्तनशीलता) बतावीने पुनरागमननो अभाव कह्यो
छे. आप प्रत्यक्ष फळ छोडीने अद्रष्ट फळ चाहो छो; आ प्रमाणे आप
विरुद्ध आचरण सहित होवा छतां पण विरुद्ध आचरण रहित छो, ए
महान् आश्चर्य छे. ९.
भावार्थ :प्रस्तुत श्लोकमां विरोधाभास अलंकार छे. वस्तुतत्त्व
अनेक धर्मात्मक छे. सर्वथा नित्यत्व, एकत्वादि स्वरूप नथी. केम के
द्रव्यद्रष्टिथी नित्य अने पर्यायद्रष्टिथी अनित्य धर्मात्मक छे. संसारी जीवोनी
अपेक्षाए पुनरागमन छे परंतु मुक्त जीवोनी अपेक्षाए पुनरागमन नथी
केम के संसारी जीव राग द्वेष, मोहभावोने वश थवाना कारणे जुदी जुदी
योनिओमां परिभ्रमण कर्या करे छे परंतु मुक्त जीवोमां कर्मकलंकनो अभाव
थई गयो छे तेथी तेमने पुनरागमन थतुं नथी. द्रष्टफळ छोडीने अद्रष्टफळ