Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७४ ][ पंचस्तोत्र
कर्मस्थितिं जन्तुरनेकभूमिं,
नयत्यमुं सा च परस्परस्य
त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ,
जिनेन्द्र नौनाविकयोरिवाख्यः ।।१२।।
अर्थ :हे भगवान! जेम समुद्रमां होडी नाविकने अने नाविक
होडीने लई जाय छे तेवी ज रीते संसारी जीव कर्मोनी स्थितिने अने कर्म
संसारीजीवोने परस्पर जुदी जुदी अवस्थाओमां लई जाय छे परिणामे
हे जिनेन्द्रदेव! आपे संसाररूपी घोर समुद्रमां परस्पर एकबीजानुं नेतृत्व
(व्यवहारनयथी) कह्युं छे. १२.
सुखाय दुःखानि गुणाय दोषा -
न्धर्माय पापानि समाचरंति
तैलाय बालाः सिकतासमूहं
निपीडयंति स्फु टमत्वदीयाः ।।१३।।
अर्थ :हे त्रिभुवनपति! आपना शासनथी बाह्य सर्वथा
एकान्तवादी जनो सुखनी प्राप्ति माटे दुःखोनुं (पर्वत उपरथी पडवुं,
अग्निमां प्रवेश करवो आदि घोर दुःखोनुं ), गुणोनी प्रसिद्धि माटे
(हाडकानी खोपरीओनी माळा पहेरवी, मृगना चामडानुं आसन राखवुं
इत्यादि) प्रत्यक्ष दोषोनुं, धर्म माटे (अश्वमेघ, नरमेघ अने नरपशुयज्ञरूप)
पापोनुं आचरण करे छे. आ प्रमाणे हेयोपादेय (हिताहित) ज्ञान रहित
जीव तेलनी प्राप्ति माटे रेतीनो समूह पीले छे. १३.
विषापहारं मणिमौषधानि
मंत्रं समुद्दिश्य रसायनं च
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति
पर्यायनामानि तवैव तानि ।।१४।।