Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 76 of 105
PDF/HTML Page 84 of 113

 

background image
७६ ][ पंचस्तोत्र
नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं
नागम्यरूपस्य तवोपकारि
तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य
भानोरुद्बिभ्रतच्छत्रमिवादरेण ।।१७।।
अर्थ :हे गुणसमुद्र! इन्द्रनी मनोहारी सेवा नित्य निरंजन
ज्ञानमूर्तिस्वरूप आपनो उपकार करती नथी. तेनी मनोहारी सेवा ते
इन्द्रना ज आत्मसुखनुं कारण छे. जेम कोई आदरपूर्वक छत्र धारण करे
छे तो तेनाथी तेने ज छायादिरूप सुखनी प्राप्ति थाय छे. तेनाथी सूर्यनो
कांई थोडो ज उपकार थाय छे? तेवी ज रीते भगवाननी सेवा द्वारा इन्द्र
संसारनाशक अतिशय पुण्यनी प्राप्ति करे छे. १७.
क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः
स चेत्किमिच्छाप्रतिकूलवादः
क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं
तन्नायथातथ्यमवेविचं ते ।।१८।।
अर्थ :हे वीतराग प्रभु! परम वीतरागी आप क्यां? आपनो
सुखदायक उपदेश क्यां? जो सुखदायक उपदेश होय तो पछी इच्छाथी
प्रतिकूळ उपदेश केम? क्यां इच्छाथी प्रतिकूळ आपनो आ उपदेश? अने
क्यां तेमां सर्व संसारी जीवोनुं प्रियपणुं? आ बधुं परस्पर विरोधी होवा
छतां पण विरोध रहित यथार्थ छे एम मने द्रढ विश्वास छे. १८.
भावार्थ :जो के वीतराग प्रभु आप परम वीतराग छो छतां
पण भव्य जीवोना पुण्योदयथी आपनी दिव्यध्वनि खरे छे. आपने
भव्यजीवो प्रत्ये कोई राग नथी तेथी वीतरागी होवामां अने उपदेश
देवामां कोई विरोध नथी. हितकारी होवा छतां पण ते इन्द्रियविषयना
तुच्छ क्षणिक सुखथी प्रतिकूळ छे केम के इन्द्रियविषय सुखनो विपाक अत्यंत
कडवो छे छतां पण शिवसुख आपवानुं मुख्य कारण होवाथी बधाने प्रिय
छे तेथी आपना उपदेशमां कोई विरोध नथी.