Panch Stotra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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विषापहार स्तोत्र ][ ७७
तुङ्गात्फलं यत्तदकिंचनाश्च,
प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादेः
निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रे
र्नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः ।।१९।।
अर्थ :हे परमात्मा! जेम पर्वत जळरहित छे परंतु स्वभावथी
ज उन्नत प्रकृति धारण करे छे तेथी तेमांथी गंगादि अनेक नदीओ नीकळे
छे अने जळथी समुद्र समुद्रमांथी एक पण नदी नीकळती नथी तेवी ज
रीते हे भगवान! आपनी पासे परमाणुमात्र पण परिग्रह नथी तोपण
अनंतज्ञानादि गुणो द्वारा अत्यंत उन्नत स्वभाव होवाथी आपना द्वारा जे
अनंत सुखादिरूप फळनी प्राप्ति थई शके छे ते धनपति कुबेरथी कदी थई
शकती नथी. १९.
त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं
दध्रे यद्रिंद्रो विनयेन तस्य
तत्प्रातिहार्यं भवतः कुतस्त्यं,
तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ।।२०।।
अर्थ :हे त्रिलोक के नाथ! इन्द्रे त्रण लोकना जीवोनी सेवा
करवा माटे जे विनयपूर्वक दंड धारण कर्यो हतो तेथी प्रतीहारपणुं इन्द्रने
ज हो केम के प्रतिहारपणानुं कार्य तेणे ज कर्युं छे, आपने ते प्रातिहार्य
(प्रतहारनुं कार्य) केवी रीते होय? अथवा बराबर छे के पूर्वोपार्जित
तीर्थंकर प्रकृतिरूप कर्मना उदयथी अशोकवृक्षादि आठ प्रातिहार्य होय छे ए
कारणे ते कर्मयोगथी आपने पण ‘प्रातिहार्य’ हो. २०.
श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः,
श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्यः
यथा प्रकाशस्थितमन्धकार
स्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमःस्थम् ।।२१।।