७८ ][ पंचस्तोत्र
अर्थ : — हे जिनेश्वर! दरिद्र मनुष्य धनवानने आदरभावथी देखे
छे परंतु आपना सिवाय बीजी कोई पण धनवान व्यक्ति पुण्योदय रहित
निर्धनने सारी रीते जोती नथी. ते योग्य ज छे कारण के अंधारामां उभेलो
मनुष्य प्रकाशमां उभेला पुरुषने जेम जोई ले छे तेम प्रकाशमां उभेलो
पुरुष अंधारामां उभेला पुरुषने जोई शकतो नथी. २१.
भावार्थ : — ऐश्वर्यना मदथी अंध संसारना संपत्तिशाळी मनुष्यो
निर्धनो तरफ आंख उघाडीने जोता पण नथी पण आप श्रीमान् होवा छतां
पण ज्ञानादि संपत्ति रहित मनुष्योने हितनो उपदेश आपीने सुखी करो
छो. आ रीते आप संसारना श्रीमानोथी भिन्न प्रकारना ज श्रीमान् छो.
स्ववृद्धिनिःश्वासनिमेषभाजि,
प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढः ।
किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध –
स्वरूपमध्यक्षमवैति लोकः ।।२२।।
अर्थ : — हे जगतना नाथ! पोताना शरीरनी वृद्धि, प्राणधारण
अने आंखना पलकारवाळा वास्तवमां पोताना स्वरूपनो अनुभव करवामां
पण अशक्त जीवो स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी आत्माने क्यांथी जाणी शके?
अने ज्यां प्रत्यक्षरूप स्वात्माने ज जाणता नथी तो पछी केवळज्ञान-
स्वरूप, अमूर्त अने चिन्मात्र एवा आपने केवी रीते जाणी शके? अर्थात्
जाणी शके नहि. २२.
तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव
त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य ।
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं
पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ।।२३।।
अर्थ : — हे परमात्मा! आप नाभिराजाना पुत्र छो अने
भरतेश्वरना पिता छो आ प्रमाणे आपना वंशनुं वर्णन करीने जे मूढबुद्धि