८० ][ पंचस्तोत्र
अर्थ : — हे अनंत सुखधारक! राहु सूर्यनो, जळ अग्निनो,
प्रलयकाळनो पवन समुद्रनो तथा वियोगभाव संसारना भोगोनो प्रतिपक्षी
छे, आ प्रमाणे केवळ आपना सिवाय संसारना बधा पदार्थोनो अभ्युदय
तेमना प्रतिपक्ष सहित छे. २६.
भावार्थ : — हे प्रभुवर! केवळ आपनो ज अभ्युदय एवो छे के
ए प्रतिपक्षी भावोथी सुरक्षित छे केमके आपना सर्व विभावोनो सर्वथा
नाश थई गयो छे तेथी केवळ आपना भक्त ज शाश्वत सुखनो रसास्वाद
ले छे.
अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्,
तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति ।
हरिन्मणिं काचधियादधान –
स्तं तस्य बुद्धया वहतो न रिक्तः ।।२७।।
अर्थ : — हे मुनिनाथ! आपने जाण्या विना (पण) नमस्कार
करनार मनुष्यने जे फळ प्राप्त थाय छे ते फळ आपनाथी भिन्न बीजाओने
‘देव’ जाणीने नमस्कार करनारने पण मळतुं नथी केमके नीलमणिने काच
मानीने धारण करनार मनुष्य, काचने नीलमणि मानीने धारण करनार
मनुष्य करतां दरिद्र नथी. २७.
प्रशस्तवाचश्चतुराः कषायै –
र्दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः ।
गतस्य दीपस्य हि नंदितत्वं,
दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वम् ।।२८।।
अर्थ : — हे जिनपति! प्रशस्त वचन बोलनार चतुर व्यवहारी
मनुष्य क्रोधादि – कषायोथी जलता पुरुषने पण देव शब्दथी संबोधे छे. आ
व्यवहार एवो छे जेम ओलवाता दीपकने लोको कहे छे के दीपक वधी
गयो अने फूटेला घडाने कहे छे के घडानुं कल्याण थई गयुं. २८.