विषापहार स्तोत्र ][ ८१
नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं,
हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः ।
निर्दोषतां के न विभावयन्ति,
ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ।।२९।।
अर्थ : — हे स्याद्वाद नायक! जेम कोईनो निरोगी स्वर सांभळतां
ज खबर पडी जाय छे के ए ज्वर रहित छे तेवी ज रीते हे देवाधिदेव!
जुदा जुदा अर्थवाळा, एक अर्थवाळा तथा हितकारी आपना द्वारा
प्रतिपादित वचनो सांभळीने कयो परीक्षक आपना जेवा सत्यवादीनी
निर्दोषतानो अनुभव न करे अर्थात् बधां ज करे छे. २९.
न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाकते
काले क्वचित्कोऽपि तथा नियोगः ।
न पूरयाम्यम्बुधिमित्यदंशुः
स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ।।३०।।
अर्थ : — हे ॠषभदेव! आ आपनो कोई अचिंत्य गुण ज छे
के आपनी क्यांय कोई पण प्रकारनी इच्छा विना ज आपना वचनो
(दिव्यध्वनि)नी प्रवृत्ति स्वभावथी ज थाय छे, एवो कांईक नियोग ज छे.
जेम चन्द्रनो उदय स्वभावथी ज थाय छे, ‘हुं समुद्रने पूरेपूरो भरी दउं’
एवी इच्छाथी चन्द्रनो उदय थतो नथी, तेवी ज रीते आपनी दिव्यध्वनि
स्वभावथी ज खरे छे. ३०.
गुणा गंभीराः परमांः प्रसन्ना
बहुप्रकाराबहवस्तबेति ।
दृष्टोयमन्तः स्तवने न तेषां
गुणो गुणानां किमतः परोस्ति ।।३१।।
अर्थ : — हे गुण समुद्र? आपना गुण गंभीर, सर्वोत्कृष्ट,
सुप्रसिद्ध, भिन्न भिन्न प्रकारना अने ते घणा छे. स्तुतिमां ते गुणोनो