चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीर्यान्तरायावसादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपं कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयन्ते । अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसामर्थ्याः सुखदुःखरूपकर्मफलानु- भवनसंवलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयन्ते । अन्यतरे तु प्रक्षालितसकलमोहकलङ्केन समुच्छिन्नकृत्स्नज्ञानावरणतयात्यन्तमुन्मुद्रितसमस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यान्तराय- क्षयासादितानन्तवीर्या अपि निर्जीर्णकर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यवाच्च स्वतोऽव्यतिरिक्त स्वाभाविक-
एवा चेतकस्वभाव वडे सुखदुःखरूप ‘कर्मफळ’ने ज प्रधानपणे चेते छे, कारण के तेमने अति प्रकृष्ट वीर्यांतरायथी कार्य करवानुं ( – कर्मचेतनारूपे परिणमवानुं) सामर्थ्य नष्ट थयुं छे.
बीजा चेतयिताओ अर्थात् आत्माओ, जे अति प्रकृष्ट मोहथी मलिन छे अने जेनो प्रभाव १प्रकृष्ट ज्ञानावरणथी बिडाई गयो छे एवा चेतकस्वभाव वडे — भले सुखदुःखरूप कर्मफळना अनुभवथी मिश्रितपणे पण — ‘कार्य’ने ज प्रधानपणे चेते छे, कारण के तेमणे थोडा वीर्यांतरायना क्षयोपशमथी २कार्य करवानुं सामर्थ्य प्राप्त कर्युं छे.
वळी बीजा चेतयिताओ अर्थात् आत्माओ, जेमांथी सकळ मोहकलंक धोवाई गयुं छे अने समस्त ज्ञानावरणना विनाशने लीधे जेनो समस्त प्रभाव अत्यंत खीली गयो छे एवा चेतकस्वभाव वडे ‘ज्ञान’ने ज — के जे ज्ञान पोताथी ३अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुखवाळुं छे तेने ज — चेते छे, कारण के तेमणे समस्त वीर्यान्तरायना क्षयथी अनंत वीर्यने प्राप्त कर्युं होवा छतां तेमने (विकारी सुखदुःखरूप) कर्मफळ
१. कर्मचेतनावाळा जीवने ज्ञानावरण ‘प्रकृष्ट’ होय छे अने कर्मफळचेतनावाळाने ‘अति प्रकृष्ट’ होय छे.
२. कार्य=(जीव वडे) करवामां आवतुं होय ते; इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म.
[जे जीवोने वीर्यनो कांईक विकास थयो छे तेमने कर्मचेतनारूपे परिणमवानुं सामर्थ्य प्रगट्युं
छे तेथी तेओ मुख्यपणे कर्मचेतनारूपे परिणमे छे. आ कर्मचेतना कर्मफळचेतनाथी मिश्रित
होय छे.]
३. अव्यतिरिक्त=अभिन्न. (स्वाभाविक सुख ज्ञानथी अभिन्न छे तेथी ज्ञानचेतना स्वाभाविक सुखना संचेतन — अनुभवन — सहित ज होय छे.)