आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । सोऽपि द्विविध : — ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्च । तत्र विशेषग्राहि ज्ञानं, सामान्यग्राहि दर्शनम् । उपयोगश्च सर्वदा केवळज्ञानीओ ज्ञानने चेते छे.
भावार्थः — पांच प्रकारना स्थावर जीवो अव्यक्त सुखदुःखानुभवरूप शुभाशुभ- कर्मफळने चेते छे. द्वींद्रिय आदि त्रस जीवो ते ज कर्मफळने इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कार्य सहित चेते छे. *परिपूर्ण ज्ञानवंत भगवंतो (अनंत सौख्य सहित) ज्ञानने ज चेते छे. ३९.
हवे उपयोगगुणनुं व्याख्यान छे.
अन्वयार्थः — [ ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः ] ज्ञानथी अने दर्शनथी संयुक्त एवो [ खलु द्विविधः ] खरेखर बे प्रकारनो [ उपयोगः ] उपयोग [ जीवस्य ] जीवने [ सर्वकालम् ] सर्व काळ [ अनन्यभूतं ] अनन्यपणे [ विजानीहि ] जाणो.
टीकाः — आत्मानो चैतन्य-अनुविधायी (अर्थात् चैतन्यने अनुसरनारो) परिणाम ते उपयोग छे. ते पण बे प्रकारनो छे — ज्ञानोपयोग अने दर्शनोपयोग. त्यां, विशेषने ग्रहनारुं ज्ञान छे अने सामान्यने ग्रहनारुं दर्शन छे (अर्थात् विशेष जेमां प्रतिभासे ते
*अहीं परिपूर्ण ज्ञानचेतनानी विवक्षा होवाथी, केवळीभगवंतो अने सिद्धभगवंतोने ज ज्ञानचेतना
कहेवामां आवी छे. आंशिक ज्ञानचेतनानी विवक्षाथी तो मुनिओ, श्रावको अने अविरत सम्यग्द्रष्टिओने
पण ज्ञानचेतना कही शकाय छे; तेनो अहीं निषेध न समजवो, मात्र विवक्षाभेद छे एम समजवुं.