आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि ।
ज्ञानोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत् ।
तत्राभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानं कुमतिज्ञानं
कुश्रुतज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति नामाभिधानम् । आत्मा ह्यनन्तसर्वात्मप्रदेशव्यापिविशुद्ध-
ज्ञान छे अने सामान्य जेमां प्रतिभासे ते दर्शन छे). वळी उपयोग सर्वदा जीवथी
अन्वयार्थः — [ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ] आभिनिबोधिक ( – मति), श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अने केवळ — [ ज्ञानानि पञ्चभेदानि ] एम ज्ञानना पांच भेद छे; [ कुमतिश्रुतविभङ्गानि च ] वळी कुमति, कुश्रुत अने विभंग — [ त्रीणि अपि ] ए त्रण (अज्ञानो) पण [ ज्ञानैः ] (पांच) ज्ञानो साथे [ संयुक्तानि ] जोडवामां आव्यां छे. (ए प्रमाणे ज्ञानोपयोगना आठ भेद छे.)
टीकाः — आ, ज्ञानोपयोगना भेदोनां नाम अने स्वरूपनुं कथन छे.
त्यां, (१) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः- पर्ययज्ञान, (५) केवळज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान अने (८) विभंगज्ञान — ए प्रमाणे (ज्ञानोपयोगना भेदोनां) नामनुं कथन छे.
(हवे तेमनां स्वरूपनुं कथन करवामां आवे छेः – ) आत्मा खरेखर अनंत, सर्व आत्मप्रदेशोमां व्यापक, विशुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप छे. ते (आत्मा) खरेखर अनादि
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*अपृथग्भूत ज छे, कारण के एक अस्तित्वथी रचायेल छे. ४०.
*अपृथग्भूत=अभिन्न. (उपयोग सदा जीवथी अभिन्न ज छे, कारण के तेओ एक अस्तित्वथी निष्पन्न छे.)