चरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम् । अने मनथी मूर्त-अमूर्त वस्तुने विकल्परूपे जे जाणे छे ते मतिज्ञान छे. ते त्रण प्रकारनुं छेः उपलब्धिरूप, भावनारूप अने उपयोगरूप. मतिज्ञानावरणना क्षयोपशमथी जनित अर्थग्रहणशक्ति ( – पदार्थने जाणवानी शक्ति) ते उपलब्धि छे, जाणेला पदार्थनुं पुनः पुनः चिंतन ते भावना छे अने ‘आ काळुं छे’, ‘आ पीळुं छे’ इत्यादिरूपे अर्थग्रहणव्यापार ( – पदार्थने जाणवानो व्यापार) ते उपयोग छे. एवी ज रीते ते (मतिज्ञान) अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणारूप भेदो वडे अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारीबुद्धि अने संभिन्नश्रोतृताबुद्धि एवा भेदो वडे चार प्रकारनुं छे. (अहीं, एम तात्पर्य ग्रहण करवुं के निर्विकार शुद्ध अनुभूति प्रत्ये अभिमुख जे मतिज्ञान ते ज उपादेयभूत अनंत सुखनुं साधक होवाथी निश्चयथी उपादेय छे, तेना साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारथी उपादेय छे.)
ते ज पूर्वोक्त आत्मा, श्रुतज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, मूर्त-अमूर्त वस्तुने परोक्षरूपे जे जाणे छे तेने ज्ञानीओ श्रुतज्ञान कहे छे. ते लब्धिरूप अने भावनारूप छे तेम ज उपयोगरूप अने नयरूप छे. ‘उपयोग’ शब्दथी अहीं वस्तुने ग्रहनारुं प्रमाण समजवुं अर्थात् आखी वस्तुने जाणनारुं ज्ञान समजवुं अने ‘नय’शब्दथी वस्तुना (गुणपर्यायरूप) एक देशने ग्रहनारो एवो ज्ञातानो अभिप्राय समजवो. (अहीं एम तात्पर्य ग्रहण करवुं के विशुद्धज्ञानदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा शुद्ध आत्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक जे भावश्रुत ते ज उपादेयभूत परमात्मतत्त्वनुं साधक होवाथी निश्चयथी उपादेय छे परंतु तेना साधनभूत बहिरंग श्रुतज्ञान तो व्यवहारथी उपादेय छे.)
आ आत्मा, अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, मूर्त वस्तुने जे प्रत्यक्षपणे जाणे छे ते अवधिज्ञान छे. ते अवधिज्ञान लब्धिरूप अने उपयोगरूप एम बे प्रकारे जाणवुं. अथवा अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि अने सर्वावधि एवा भेदो वडे त्रण प्रकारे छे. तेमां, परमावधि अने सर्वावधि चैतन्यना ऊछळवाथी भरपूर आनंदरूप परमसुखामृतना रसास्वादरूप समरसीभावे परिणत चरमदेही तपोधनोने होय छे. त्रणे प्रकारनां अवधिज्ञानो विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणथी निश्चये थाय छे. देवो अने नारकोने थतुं भवप्रत्ययी जे अवधिज्ञान ते नियमथी देशावधि ज होय छे.
७४