— इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम् ।।४१।।
आ आत्मा, मनःपर्ययज्ञानावरणनो क्षयोपशम होतां, परमनोगत मूर्त वस्तुने जे प्रत्यक्षपणे जाणे छे ते मनःपर्ययज्ञान छे. ॠजुमति अने विपुलमति एवा भेदो वडे मनःपर्ययज्ञान बे प्रकारनुं छे. त्यां, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान परना मनवचनकाय संबंधी पदार्थने, वक्र तेम ज अवक्र बन्नेने, जाणे छे अने ॠजुमति मनःपर्ययज्ञान तो ॠजुने (अवक्रने) ज जाणे छे. निर्विकार आत्मानी उपलब्धि अने भावना सहित चरमदेही मुनिओने विपुलमति मनःपर्ययज्ञान होय छे. आ बन्ने मनःपर्ययज्ञानो वीतराग आत्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठाननी भावना सहित, पंदर प्रमाद रहित अप्रमत्त मुनिने उपयोगमां — विशुद्ध परिणाममां
उत्पादकाळे ज अप्रमत्तपणानो नियम छे, पछी प्रमत्तपणामां पण ते संभवे छे.
जे ज्ञान घटपटादि ज्ञेय पदार्थोने अवलंबीने ऊपजतुं नथी ते केवळज्ञान छे. ते श्रुतज्ञानस्वरूप पण नथी. जोके दिव्यध्वनिकाळे तेना आधारे गणधरदेव वगेरेने श्रुतज्ञान परिणमे छे तोपण ते श्रुतज्ञान गणधरदेव वगेरेने ज होय छे, केवळीभगवंतोने तो केवळज्ञान ज होय छे. वळी, केवळीभगवंतोने श्रुतज्ञान नथी एटलुं ज नहि, पण तेमने ज्ञान-अज्ञान पण नथी अर्थात् तेमने कोई विषयनुं ज्ञान अने कोई विषयनुं अज्ञान होय एम पण नथी — सर्व विषयोनुं ज्ञान ज होय छे; अथवा, तेमने मतिज्ञानादि अनेक भेदवाळुं ज्ञान नथी — केवळज्ञान एक ज छे.
अहीं जे पांच ज्ञानो वर्णववामां आव्यां ते व्यवहारथी वर्णववामां आव्यां छे. निश्चयथी तो वादळां विनाना सूर्यनी माफक आत्मा अखंड-एक-ज्ञानप्रतिभासमय ज छे.
हवे अज्ञानत्रय विषे कहेवामां आवे छेः —
मिथ्यात्व द्वारा अर्थात् भाव-आवरण द्वारा अज्ञान ( – कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान तथा विभंगज्ञान) अने अविरतिभाव होय छे तथा ज्ञेयने अवलंबतां ( – ज्ञेय संबंधी विचार अथवा ज्ञान करतां) ते ते काळे दुःनय अने दुःप्रमाण होय छे. (मिथ्यादर्शनना सद्भावमां वर्ततुं मतिज्ञान ते कुमतिज्ञान छे, श्रुतज्ञान ते कुश्रुतज्ञान छे, अवधिज्ञान ते विभंगज्ञान छे; तेना सद्भावमां वर्तता नयो ते दुःनयो छे अने प्रमाण ते दुःप्रमाण छे.) माटे एम भावार्थ समजवो के निर्विकार शुद्ध आत्मानी अनुभूतिस्वरूप निश्चय सम्यक्त्व उपादेय छे.