Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 54.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

क्षायोपशमिकौपशमिकभावैः सादिसनिधनाः त एव क्षायिकभावेन साद्यनिधनाः न च सादित्वात्सनिधनत्वं क्षायिकभावस्याशङ्कयम् स खलूपाधिनिवृत्तौ प्रवर्तमानः सिद्धभाव इव सद्भाव एव जीवस्य; सद्भावेन चानन्ता एव जीवाः प्रतिज्ञायन्ते न च तेषामनादिनिधनसहजचैतन्यलक्षणैकभावानां सादिसनिधनानि साद्यनिधनानि भावान्तराणि नोपपद्यन्त इति वक्त व्यम्; ते खल्वनादिकर्ममलीमसाः पङ्कसम्पृक्त तोयवत्तदाकारेण परिणत- त्वात्पञ्चप्रधानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयन्त इति ।।५३।। एवं सदो विणासो असदो जीवस्स हवदि उप्पादो

इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं ।।५४।। ज औदयिक, क्षायोपशमिक अने औपशमिक भावोथी सादि-सांत छे. तेओ ज क्षायिक भावथी सादि-अनंत छे.

क्षायिक भाव सादि होवाथी ते सांत हशे’ एवी आशंका करवी योग्य नथी. (कारण आ प्रमाणे छेः) ते खरेखर उपाधिनी निवृत्ति होतां प्रवर्ततो थको, सिद्धभावनी माफक, जीवनो सद्भाव ज छे (अर्थात् कर्मोपाधिना क्षये प्रवर्ततो होवाथी क्षायिक भाव जीवनो सद्भाव ज छे); अने सद्भावथी तो जीवो अनंत ज स्वीकारवामां आवे छे. (माटे क्षायिक भावथी जीवो अनंत ज अर्थात् विनाश-रहित ज छे.)

वळी ‘अनादि-अनंत सहजचैतन्यलक्षण एक भाववाळा तेमने सादि-सांत अने सादि-अनंत भावांतरो घटता नथी (अर्थात् जीवोने एक पारिणामिक भाव सिवाय अन्य भावो घटता नथी)’ एम कहेवुं योग्य नथी; (कारण के) तेओ खरेखर अनादि कर्मथी मलिन वर्तता थका कादवथी *संपृक्त जळनी माफक तदाकारे परिणत होवाने लीधे, पांच प्रधान +गुणोथी प्रधानतावाळा ज अनुभवाय छे. ५३.

ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद जीवने होय छे,
भाख्युं जिने, जे पूर्व - अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे. ५४.

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*कादवथी संपृक्त = कादवनो संपर्क पामेल; कादवना संसर्गवाळुं. (जोके जीवो द्रव्यस्वभावथी शुद्ध छे तोपण
व्यवहारथी अनादि कर्मबंधनने वश, कादववाळा जळनी माफक, औदयिकादि भावे परिणत छे.)

+जीवना औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक अने पारिणामिक ए पांच भावोने जीवना पांच
प्रधान गुणो कहेवामां आव्या छे.