Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 57.

< Previous Page   Next Page >


Page 94 of 256
PDF/HTML Page 134 of 296

 

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

कर्मणां फलदानसमर्थतयोद्भूतिरुदयः, अनुद्भूतिरुपशमः, उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः, अत्यन्तविश्लेषः क्षयः, द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः तत्रोदयेन युक्त औदयिकः, उपशमेन युक्त औपशमिकः, क्षयोपशमेन युक्त : क्षायोपशमिकः, क्षयेण युक्त : क्षायिकः, परिणामेन युक्त : पारिणामिकः त एते पञ्र्च जीवगुणाः तत्रोपाधिचतुर्विधत्वनिबन्धना- श्चत्वारः, स्वभावनिबन्धन एकः एते चोपाधिभेदात्स्वरूपभेदाच्च भिद्यमाना बहुष्वर्थेषु विस्तार्यन्त इति ।।५६।। कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं

सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे पढिदं ।।५७।।

कर्मोनो फळदानसमर्थपणे उद्भव ते ‘उदय’ छे, अनुद्भव ते ‘उपशम’ छे, उद्भव तेम ज अनुद्भव ते ‘क्षयोपशम’ छे, अत्यंत विश्लेष ते ‘क्षय’ छे, द्रव्यनो आत्मलाभ (हयाती) जेनो हेतु छे ते ‘परिणाम’ छे. त्यां, उदयथी युक्त ते ‘औदयिक छे, उपशमथी युक्त ते ‘औपशमिक’ छे, क्षयोपशमथी युक्त ते ‘क्षायोपशमिक’ छे, क्षयथी युक्त ते ‘क्षायिक’ छे, परिणामथी युक्त ते ‘पारिणामिक’ छे.एवा आ पांच जीवगुणो छे. तेमां (आ पांच गुणोमां) उपाधिनुं चतुर्विधपणुं जेमनुं कारण (निमित्त) छे एवा चार छे, स्वभाव जेनुं कारण छे एवो एक छे. उपाधिना भेदथी अने स्वरूपना भेदथी भेद पाडतां, तेमने घणा प्रकारोमां विस्तारवामां आवे छे. ५६.

पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ताकह्युं जिनशासने. ५७.

९४

१. फळदानसमर्थ = फळ देवामां समर्थ
२. अत्यंत विश्लेष = अत्यंत वियोग; आत्यंतिक निवृत्ति.
३. आत्मलाभ = स्वरूपप्राप्ति; स्वरूपने धारी राखवुं ते; पोताने धारी राखवुं ते; हयाती. (द्रव्य पोताने
धारी राखे छे अर्थात् पोते हयात रहे छे तेथी तेने ‘परिणाम’ छे.)

४. क्षयथी युक्त = क्षय सहितः क्षय साथे संबंधवाळो. (व्यवहारे कर्मोना क्षयनी अपेक्षा जीवना जे भावमां आवे ते ‘क्षायिक’ भाव छे.)

५. परिणामथी युक्त = परिणाममय; परिणामात्मक; परिणामस्वरूप.
६. कर्मोपाधिनी चार प्रकारनी दशा (
उदय, उपशम, क्षयोपशम अने क्षय) जेमनुं निमित्त छे एवा चार भावो छे; जेमां कर्मोपाधिरूप निमित्त बिलकुल नथी, मात्र द्रव्यस्वभाव ज जेनुं कारण छे
एवो एक पारिणामिक भाव छे.