करणत्वः, स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते । अतः कर्मणः
कर्तुर्नास्ति जीवः कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेनेति ।।६२।।
पोताने देवामां आवतुं होवाथी) संप्रदानपणाने पामेलो अने (६) धारी राखवामां आवता भावपर्यायनो आधार होवाथी जेणे अधिकरणपणाने ग्रह्युं छे एवो — स्वयमेव षट्कारकरूपे वर्ततो थको अन्य कारकनी अपेक्षा राखतो नथी.
माटे निश्चयथी कर्मरूप कर्ताने जीव कर्ता नथी अने जीवरूप कर्ताने कर्म कर्ता नथी. (ज्यां कर्म कर्ता छे त्यां जीव कर्ता नथी अने ज्यां जीव कर्ता छे त्यां कर्म कर्ता नथी.)
भावार्थः — (१) पुद्गल स्वतंत्रपणे द्रव्यकर्मने करतुं होवाथी पुद्गल पोते ज कर्ता छे; (२) पोते द्रव्यकर्मरूपे परिणमवानी शक्तिवाळुं होवाथी पुद्गल पोते ज करण छे; (३) द्रव्यकर्मने प्राप्त करतुं — पहोंचतुं होवाथी द्रव्यकर्म कर्म छे, अथवा द्रव्यकर्मथी पोते अभिन्न होवाथी पुद्गल पोते ज कर्म ( – कार्य) छे; (४) पोतानामांथी पूर्व परिणामनो व्यय करीने द्रव्यकर्मरूप परिणाम करतुं होवाथी अने पुद्गलद्रव्यरूपे ध्रुव रहेतुं होवाथी पुद्गल पोते ज अपादान छे; (५) पोताने द्रव्यकर्मरूप परिणाम देतुं होवाथी पुद्गल पोते ज संप्रदान छे; (६) पोतानामां अर्थात् पोताना आधारे द्रव्यकर्म करतुं होवाथी पुद्गल पोते ज अधिकरण छे.
ए ज प्रमाणे (१) जीव स्वतंत्रपणे जीवभावने करतो होवाथी जीव पोते ज कर्ता छे; (२) पोते जीवभावरूपे परिणमवानी शक्तिवाळो होवाथी जीव पोते ज करण छे; (३) जीवभावने प्राप्त करतो — पहोंचतो होवाथी जीवभाव कर्म छे, अथवा जीवभावथी पोते अभिन्न होवाथी जीव पोते ज कर्म छे; (४) पोतानामांथी पूर्व भावनो व्यय करीने (नवीन) जीवभाव करतो होवाथी अने जीवद्रव्यरूपे ध्रुव रहेतो होवाथी जीव पोते ज अपादान छे; (५) पोताने जीवभाव देतो होवाथी जीव पोते ज संप्रदान छे; (६) पोतानामां अर्थात् पोताना आधारे जीवभाव करतो होवाथी जीव पोते ज अधिकरण छे.
आ रीते, पुद्गलनी कर्मोदयादिरूपे के कर्मबंधादिरूपे परिणमवानी क्रियाने विषे खरेखर पुद्गल ज स्वयमेव छ कारकरूपे वर्ततुं होवाथी तेने अन्य कारकोनी अपेक्षा नथी तथा जीवनी औदयिकादि भावरूपे परिणमवानी क्रियाने विषे खरेखर जीव ज स्वयमेव छ कारकरूपे वर्ततो होवाथी तेने अन्य कारकोनी अपेक्षा नथी. पुद्गलनी अने