Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 66.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१०५
जह पोग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिव्वत्ती
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ।।६६।।
यथा पुद्गलद्रव्याणां बहुप्रकारैः स्कन्धनिर्वृत्तिः
अकृता परैद्रर्ष्टा तथा कर्मणां विजानीहि ।।६६।।

अनन्यकृतत्वं कर्मणां वैचित्र्यस्यात्रोक्त म्

यथा हि स्वयोग्यचन्द्रार्क प्रभोपलम्भे सन्ध्याभ्रेन्द्रचापपरिवेषप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः पुद्गलस्क न्धविकल्पाः कर्त्रन्तरनिरपेक्षा एवोत्पद्यन्ते, तथा स्वयोग्यजीवपरिणामोपलम्भे ज्ञाना- वरणप्रभृतिभिर्बहुभिः प्रकारैः कर्माण्यपि कर्त्रन्तरनिरपेक्षाण्येवोत्पद्यन्ते इति ।।६६।।

ज्यम स्कंधरचना बहुविधा देखाय छे पुद्गल तणी
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी. ६६.

अन्वयार्थ[ यथा ] जेम [ पुद्गलद्रव्याणां ] पुद्गलद्रव्योनी [ बहुप्रकारैः ] बहु प्रकारे [ स्कन्धनिर्वृत्तिः ] स्कंधरचना [ परैः अकृता ] परथी कराया विना [ दृष्टा ] थती जोवामां आवे छे, [ तथा ] तेम [ कर्मणां ] कर्मोनी बहुप्रकारता [ विजानीहि ] परथी अकृत जाणो.

टीकाकर्मोनी विचित्रता (बहुप्रकारता) अन्य वडे करवामां आवती नथी एम अहीं कह्युं छे.

जेम पोताने योग्य चंद्र-सूर्यना प्रकाशनी उपलब्धि होतां, संध्या-वादळां-इंद्रधनुष- प्रभामंडळ इत्यादि घणा प्रकारे पुद्गलस्कंधभेदो अन्य कर्तानी अपेक्षा विना ज ऊपजे छे, तेम पोताने योग्य जीव-परिणामनी उपलब्धि होतां, ज्ञानावरणादि घणा प्रकारे कर्मो पण अन्य कर्तानी अपेक्षा विना ज ऊपजे छे.

भावार्थकर्मोनी विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभागरूप विचित्रता पण जीवकृत नथी, पुद्गलकृत ज छे. ६६. पं. १४