Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 67.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जीवा पोग्गलकाया अण्णण्णोगाढगहणपडिबद्धा
काले विजुज्जमाणा सुहदुक्खं देंति भुंजंति ।।६७।।
जीवाः पुद्गलकायाः अन्योन्यावगाढग्रहणप्रतिबद्धाः
काले वियुज्यमानाः सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति ।।६७।।

निश्चयेन जीवकर्मणोश्चैककर्तृत्वेऽपि व्यवहारेण कर्मदत्तफलोपलम्भो जीवस्य न विरुध्यत इत्यत्रोक्त म्

जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात्पुद्गलस्कन्धाश्च स्वभावस्निग्धत्वाद्बन्धावस्थायां परमाणुद्वन्द्वानीवान्योन्यावगाहग्रहणप्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठन्ते यदा तु ते परस्परं वियुज्यन्ते, तदोदितप्रच्यवमाना निश्चयेन सुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेणेष्टानिष्टविषयाणां

जीव-पुद्गलो अन्योन्यमां अवगाह ग्रहीने बद्ध छे;
काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपेभोगवे. ६७.

अन्वयार्थ[ जीवाः पुद्गलकायाः ] जीवो अने पुद्गलकायो [ अन्योन्यावगाढ- ग्रहणप्रतिबद्धाः ] (विशिष्ट प्रकारे) अन्योन्य-अवगाहने ग्रहवा वडे (परस्पर) बद्ध छे; [ काले वियुज्यमानाः ] काळे छूटा पडतां [ सुखदुःखं ददति भुञ्जन्ति ] सुखदुःख आपे छे अने भोगवे छे (अर्थात् पुद्गलकायो सुखदुःख आपे छे अने जीवो भोगवे छे).

टीकानिश्चयथी जीव अने कर्मने एकनुं (निज निज रूपनुं ज) कर्तापणुं होवा छतां, व्यवहारथी जीवने कर्मे दीधेला फळनो भोगवटो विरोध पामतो नथी (अर्थात् ‘कर्म जीवने फळ आपे छे अने जीव तेने भोगवे छे’ ए वात पण व्यवहारथी घटे छे) एम अहीं कह्युं छे.

जीवो मोहरागद्वेष वडे स्निग्ध होवाने लीधे अने पुद्गलस्कंधो स्वभावथी स्निग्ध होवाने लीधे, (तेओ) बंध-अवस्थामां*परमाणुद्वंद्वोनी माफक(विशिष्ट प्रकारे) अन्योन्य-अवगाहना ग्रहण वडे बद्धपणे रहे छे. ज्यारे तेओ परस्पर छूटा पडे छे त्यारे (नीचे प्रमाणे पुद्गलस्कंधो फळ आपे छे अने जीवो तेने भोगवे छे)उदय पामीने खरी जता पुद्गलकायो सुखदुःखरूप आत्मपरिणामोना निमित्तमात्र होवानी

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*परमाणुद्वंद्व = बे परमाणुओनुं जोडकुं; बे परमाणुओनो बनेलो स्कंध; द्वि-अणुक स्कंध.