निमित्तमात्रत्वात्पुद्गलकायाः सुखदुःखरूपं फलं प्रयच्छन्ति । जीवाश्च निश्चयेन निमित्त-
मात्रभूतद्रव्यकर्मनिर्वर्तितसुखदुःखरूपात्मपरिणामानां व्यवहारेण द्रव्यकर्मोदयापादितेष्टा-
अपेक्षाए *निश्चयथी, अने इष्टानिष्ट विषयोना निमित्तमात्र होवानी अपेक्षाए निष्पन्न थता सुख-दुःखरूप आत्मपरिणामोना भोक्ता होवानी अपेक्षाए निश्चयथी, अने (निमित्तमात्रभूत) द्रव्यकर्मना उदयथी संपादित इष्टानिष्ट विषयोना भोक्ता होवानी अपेक्षाए व्यवहारथी, ते प्रकारनुं (सुखदुःखरूप) फळ भोगवे छे (अर्थात् निश्चयथी सुखदुःखपरिणामरूप अने व्यवहारथी इष्टानिष्ट विषयरूप फळ भोगवे छे).
मात्र एटलो भेद सूचववा माटे ज पाड्या छे के ‘कर्मनिमित्तक सुखदुःखपरिणामो जीवमां थाय छे अने कर्मनिमित्तक इष्टानिष्ट विषयो जीवथी तद्दन भिन्न छे’. परंतु अहीं कहेला निश्चयरूप भंगथी एम न समजवुं के ‘पौद्गलिक कर्म जीवने खरेखर फळ आपे छे अने जीव खरेखर
पासेथी फळ मेळवीने भोगवी शकतुं नथी. जो परमार्थे कोई द्रव्य अन्य द्रव्यने फळ आपे अने ते अन्य द्रव्य तेने भोगवे तो बंने द्रव्यो एक थई जाय. अहीं ए ध्यानमां राखवुं खास आवश्यक छे के टीकाना पहेला फकरामां आखी गाथाना कथननो सार कहेतां श्री टीकाकार आचार्यदेवे पोते ज, जीवने कर्मे दीधेला फळनो भोगवटो व्यवहारथी ज कह्यो छे, निश्चयथी नहि.
*व्यवहारथी, +सुखदुःखरूप फळ आपे छे; तथा जीवो निमित्तमात्रभूत द्रव्यकर्मथी
*(१) सुखदुःखपरिणामोमां तथा (२) इष्टानिष्ट विषयोना संयोगमां शुभाशुभ कर्मो निमित्तभूत
होय छे, तेथी ते कर्मोने तेमना निमित्तमात्रपणानी अपेक्षाए ज ‘‘(१) सुखदुःखपरिणामरूप (फळ)
तथा (२) इष्टानिष्ट विषयरूप फळ ‘देनारां’ ’’ (उपचारथी) कही शकाय छे. हवे, (१) सुख-
दुःखपरिणाम तो जीवना पोताना ज पर्यायरूप होवाथी जीव सुखदुःखपरिणामने तो ‘निश्चयथी’
भोगवे छे, अने तेथी सुखदुःखपरिणाममां निमित्तभूत वर्ततां शुभाशुभ कर्मो विषे पण ( – जेमने
‘‘सुखदुःखपरिणामरूप फळ देनारां’’ कह्यां हतां तेमना विषे पण) ते अपेक्षाए एम कही शकाय
छे के ‘‘तेओ जीवने ‘निश्चयथी’ सुखदुःखपरिणामरूप फळ दे छे’’; तथा (२) इष्टानिष्ट विषयो
तो जीवथी तद्दन भिन्न होवाथी जीव इष्टानिष्ट विषयोने तो ‘व्यवहारथी’ भोगवे छे, अने
तेथी इष्टानिष्ट विषयोमां निमित्तभूत वर्ततां शुभाशुभ कर्मो विषे पण ( – जेमने ‘‘इष्टानिष्ट
विषयरूप फळ देनारां’’ कह्यां हतां तेमना विषे पण) ते अपेक्षाए एम कही शकाय छे के ‘‘तेओ
जीवने ‘व्यवहारथी’ इष्टानिष्ट विषयरूप फळ दे छे.’’
+सुखदुःखना बे अर्थो थाय छेः (१) सुखदुःखपरिणामो, अने (२) इष्टानिष्ट विषयो. ज्यां
‘निश्चयथी’ कह्युं छे त्यां ‘सुखदुःखपरिणामो’ एवो अर्थ समजवो अने ज्यां ‘व्यवहारथी’ कह्युं
छे त्यां ‘इष्टानिष्ट विषयो’ एवो अर्थ समजवो.