Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 73.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्त त्वादेक एव, ज्ञानदर्शनभेदाद्दिव- विकल्पः, कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्र्रिलक्षणः ध्रौव्योत्पादविनाश- भेदेन वा, चतसृषु गतिषु चङ्क्रमणत्वाच्चतुश्चङ्क्रमणः, पञ्र्चभिः पारिणामिकौदयिकादि- भिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः, चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवान्तरसङ्क्रमण- षटकेनापक्रमेण युक्त त्वात्षटकापक्रमयुक्त :, अस्तिनास्त्यादिभिः सप्तभंगैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः, अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः, नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपञ्र्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वाद्दशस्थानग इति ।।७१७२।।

पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को
उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति ।।७३।।

नव-अर्थरूप अने [ दशस्थानगः ] दशस्थानगत [ भणितः ] कहेवामां आव्यो छे.

टीकाते जीव महात्मा (१) खरेखर नित्यचैतन्य-उपयोगी होवाथी ‘एक ज छे; (२) ज्ञान ने दर्शन एवा भेदोने लीधे ‘बे भेदवाळो’ छे; (३) कर्मफळचेतना, कार्यचेतना ने ज्ञानचेतना एवा भेदो वडे अथवा ध्रौव्य, उत्पाद ने विनाश एवा भेदो वडे लक्षित होवाथी ‘त्रिलक्षण (त्रण लक्षणवाळो)’ छे; (४) चार गतिमां भमतो होवाथी ‘चतुर्विध भ्रमणवाळो’ छे; (५) पारिणामिक, औदयिक इत्यादि पांच मुख्य गुणो वडे प्रधानपणुं होवाथी ‘पांच मुख्य गुणोथी प्रधानतावाळो’ छे; (६) चार दिशाओमां, ऊंचे अने नीचे एम षड्विध भवांतरगमनरूप अपक्रमथी युक्त होवाथी (अर्थात् अन्य भवमां जतां उपरोक्त छ दिशाओमां गमन थतुं होवाथी) ‘छ अपक्रम सहित’ छे; (७) अस्ति, नास्ति आदि सात भंगो वडे जेनो सद्भाव छे एवो होवाथी सात भंगपूर्वक सद्भाववाळो’ छे; (८) (ज्ञानावरणीयादि) आठ कर्मोना अथवा (सम्यक्त्वादि) आठ गुणोना आश्रयभूत होवाथी ‘आठना आश्रयरूप’ छे; (९) नव पदार्थरूपे वर्ततो होवाथी ‘नव-अर्थरूप’ छे; (१०) पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रियरूप दश स्थानोमां प्राप्त होवाथी ‘दशस्थानगत’ छे. ७१७२.

प्रकृति-स्थिति-परदेश-अनुभवबंधथी परिमुक्तने
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे. ७३.

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