परमाणोरेकप्रदेशत्वख्यापनमेतत् ।
परमाणुः स खल्वेकेन प्रदेशेन रूपादिगुणसामान्यभाजा सर्वदैवाविनश्वरत्वा-
न्नित्यः । एकेन प्रदेशेन तदविभक्त वृत्तीनां स्पर्शादिगुणानामवकाशदानान्नानवकाशः ।
परिणमे छे; ए रीते शब्द नियतपणे (अवश्य) १उत्पाद्य छे; तेथी ते २स्कंधजन्य छे. ७९.
अन्वयार्थः — [ प्रदेशतः ] प्रदेश द्वारा [ नित्यः ] परमाणु नित्य छे, [ न अनवकाशः ] अनवकाश नथी, [ न सावकाशः ] सावकाश नथी, [ स्कन्धानाम् भेत्ता ] स्कंधोनो तोडनार [ अपि च कर्ता ] तेम ज करनार छे तथा [ कालसंख्यायाः प्रविभक्ता ] काळ ने संख्यानो विभागनार छे (अर्थात् काळनो भाग पाडे छे अने संख्यानुं माप करे छे).
टीकाः — आ, परमाणुना एकप्रदेशीपणानुं कथन छे.
जे परमाणु छे, ते खरेखर एक प्रदेश वडे — के जे रूपादिगुणसामान्यवाळो छे तेना वडे — सदाय अविनाशी होवाथी नित्य छे; ते खरेखर एक प्रदेश वडे तेनाथी ( – प्रदेशथी) अभिन्न अस्तित्ववाळा स्पर्शादिगुणोने अवकाश देतो होवाने लीधे
लोकमां सर्वत्र व्यापेली अनंतपरमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणाओ स्वयमेव शब्दरूपे परिणमती होवा छतां पवन-गळुं-ताळवुं-जीभ-होठ, घंट-मोगरी वगेरे महास्कंधोनुं अथडावुं ते बहिरंगकारणसामग्री छे अर्थात् शब्दरूप परिणमनमां ते महास्कंधो निमित्तभूत छे तेथी ते अपेक्षाए (निमित्त-
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१. उत्पाद्य = उत्पन्न करावा योग्य; जेनी उत्पत्तिमां अन्य कोई निमित्त होय छे एवो.
२. स्कंधजन्य = स्कंधो वडे उत्पन्न थाय एवो; जेनी उत्पत्तिमां स्कंधो निमित्त होय छे एवो. [