Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 88.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

वृत्तिरूपो लोकः शुद्धैकाकाशवृत्तिरूपोऽलोकः तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वय- मनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मौ न भवेताम्, तदा तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्तिः केन वार्येत ततो न लोकालोकविभागः सिध्येत धर्माधर्मयोस्तु जीव- पुद्गलयोर्गतितत्पूर्वस्थित्योर्बहिरङ्गहेतुत्वेन सद्भावेऽभ्युपगम्यमाने लोकालोकविभागो जायत इति किञ्च धर्माधर्मौ द्वावपि परस्परं पृथग्भूतास्तित्वनिर्वृत्तत्वाद्विभक्तौ एक- क्षेत्रावगाढत्वादविभक्तौ निष्क्रियत्वेन सकललोकवर्तिनोर्जीवपुद्गलयोर्गतिस्थित्युपग्रहकरणा- ल्लोकमात्राविति ।।८७।। ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स

हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ।।८८।। अस्तित्वरूप अलोक छे. त्यां, जीव अने पुद्गल स्वरसथी ज (स्वभावथी ज) गतिपरिणामने तथा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामने प्राप्त होय छे. जो गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणामने स्वयं अनुभवतां एवां ते जीव-पुद्गलने बहिरंग हेतुओ धर्म अने अधर्म न होय, तो जीव-पुद्गलने *निरर्गळ गतिपरिणाम अने स्थितिपरिणाम थवाथी अलोकमां पण तेमनुं (जीव-पुद्गलनुं) होवुं कोनाथी वारी शकाय? (कोईथी न ज वारी शकाय.) तेथी लोक अने अलोकनो विभाग सिद्ध न थाय. परंतु जो जीव- पुद्गलनी गतिना अने गतिपूर्वक स्थितिना बहिरंग हेतुओ तरीके धर्म अने अधर्मनो सद्भाव स्वीकारवामां आवे तो लोक अने अलोकनो विभाग (सिद्ध) थाय छे. (माटे धर्म अने अधर्म विद्यमान छे.) वळी (तेमना विषे विशेष हकीकत ए छे के), धर्म अने अधर्म बंने परस्पर पृथग्भूत अस्तित्वथी निष्पन्न होवाथी विभक्त (भिन्न) छे; एकक्षेत्रावगाही होवाथी अविभक्त (अभिन्न) छे; समस्त लोकमां वर्तनारां जीव- पुद्गलने गतिस्थितिमां निष्क्रियपणे अनुग्रह करता होवाथी (निमित्तरूप थता होवाथी) लोकप्रमाण छे. ८७.

धर्मास्ति गमन करे नहीं, न करावतो परद्रव्यने;
जीव-पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे. ८८.

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*निरर्गळ=निरंकुश; अमर्याद.