Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 94.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१३९

स्थितिपक्षोपन्यासोऽयम्

यतो गत्वा भगवन्तः सिद्धाः लोकोपर्यवतिष्ठन्ते, ततो गतिस्थितिहेतुत्वमाकाशे नास्तीति निश्चेतव्यम् लोकालोकावच्छेदकौ धर्माधर्मावेव गतिस्थितिहेतू मन्तव्याविति ।।९३।।

जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्ढी ।।९४।।
यदि भवति गमनहेतुराकाशं स्थानकारणं तेषाम्
प्रसजत्यलोकहानिर्लोकस्य चान्तपरिवृद्धिः ।।९४।।

आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वाभावे हेतूपन्यासोऽयम्

नाकाशं गतिस्थितिहेतुः लोकालोकसीमव्यवस्थायास्तथोपपत्तेः यदि गति- [ उपरिस्थानं ] लोकना उपर स्थिति [ प्रज्ञप्तम् ] कही छे, [ तस्मात् ] तेथी [ गमनस्थानम् आकाशे न अस्ति ] गति-स्थिति आकाशमां होती नथी (अर्थात् गतिस्थितिहेतुत्व आकाशने विषे नथी) [ इति जानीहि ] एम जाणो.

टीकाः(गतिपक्ष संबंधी कथन कर्या पछी) आ, स्थितिपक्ष संबंधी कथन छे.

जेथी सिद्धभगवंतो गमन करीने लोकना उपर स्थिर थाय छे (अर्थात् लोकना उपर गतिपूर्वक स्थिति करे छे), तेथी गतिस्थितिहेतुत्व आकाशने विषे नथी एम निश्चय करवो; लोक अने अलोकनो विभाग करनारा धर्म तथा अधर्मने ज गति तथा स्थितिना हेतु मानवा. ९३.

नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल-जीवने,
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त पामे वृद्धिने. ९४.

अन्वयार्थः[ यदि ] जो [ आकाशं ] आकाश [ तेषाम् ] जीव-पुद्गलोने [ गमन- हेतुः ] गतिहेतु अने [ स्थानकारणं ] स्थितिहेतु [ भवति ] होय तो [ अलोकहानिः ] अलोकनी हानिनो [ च ] अने [ लोकस्य अन्तपरिवृद्धिः ] लोकना अंतनी वृद्धिनो [ प्रसजति ] प्रसंग आवे.

टीकाःअहीं, आकाशने गतिस्थितिहेतुत्वनो अभाव होवा विषे हेतु रजू करवामां आव्यो छे.

आकाश गति-स्थितिनो हेतु नथी, कारण के लोक अने अलोकनी सीमानी व्यवस्था