Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 95-96.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

स्थित्योराकाशमेव निमित्तमिष्येत्, तदा तस्य सर्वत्र सद्भावाज्जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यो- र्निःसीमत्वात्प्रतिक्षणमलोको हीयते, पूर्वं पूर्वं व्यवस्थाप्यमानश्चान्तो लोकस्योत्तरोत्तरपरिवृद्धया विघटते ततो न तत्र तद्धेतुरिति ।।९४।।

तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं
इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ।।९५।।
तस्माद्धर्माधर्मौ गमनस्थितिकारणे नाकाशम्
इति जिनवरैः भणितं लोकस्वभावं शृण्वताम् ।।९५।।

आकाशस्य गतिस्थितिहेतुत्वनिरासव्याख्योपसंहारोऽयम्

धर्माधर्मावेव गतिस्थितिकारणे नाकाशमिति ।।९५।।
धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा
पुधगुवलद्धिविसेसा करेंति एगत्तमण्णत्तं ।।९६।।

ए रीते ज बनी शके छे. जो आकाशने ज गति-स्थितिनुं निमित्त मानवामां आवे, तो आकाशनो सद्भाव सर्वत्र होवाने लीधे जीव-पुद्गलोनी गतिस्थितिनी कोई सीमा नहि रहेवाथी प्रतिक्षण अलोकनी हानि थाय अने पहेलां पहेलां व्यवस्थापित थयेलो लोकनो अंत उत्तरोत्तर वृद्धिने पामवाथी लोकनो अंत ज तूटी पडे (अर्थात् पहेलां पहेलां निश्चित थयेलो लोकनो अंत पछी पछी आगळ वधतो जवाथी लोकनो अंत ज बनी शके नहि). माटे आकाशने विषे गति-स्थितिनो हेतु नथी. ९४.

तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नहीं;
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति. ९५.

अन्वयार्थः[ तस्मात् ] तेथी [ गमनस्थितिकारणे ] गति अने स्थितिनां कारण [ धर्माधर्मौ ] धर्म अने अधर्म छे, [ न आकाशम् ] आकाश नहि. [ इति ] आम [ लोकस्वभावं शृण्वताम् ] लोकस्वभावना श्रोताओ प्रत्ये [ जिनवरैः भणितम् ] जिनवरोए कह्युं छे.

टीकाःआ, आकाशने गतिस्थितिहेतुत्व होवाना खंडन संबंधी कथननो उपसंहार छे.

धर्म अने अधर्म ज गति अने स्थितिनां कारण छे, आकाश नहि. ९५.

धर्माधरम-नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी,
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे. ९६.

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