अत्र द्रव्याणां मूर्तामूर्तत्वं चेतनाचेतनत्वं चोक्त म् ।
स्पर्शरसगन्धवर्णसद्भावस्वभावं मूर्तं, स्पर्शरसगन्धवर्णाभावस्वभावममूर्तम् । चैतन्य- सद्भावस्वभावं चेतनं, चैतन्याभावस्वभावमचेतनम् । तत्रामूर्तमाकाशं, अमूर्तः कालः, अमूर्तः स्वरूपेण जीवः पररूपावेशान्मूर्तोऽपि, अमूर्तो धर्मः, अमूर्तोऽधर्मः, मूर्तः
हवे १चूलिका छे.
अन्वयार्थः — [ आकाशकालजीवाः ] आकाश, काळ, जीव, [ धर्माधर्मौ च ] धर्म अने अधर्म [ मूर्तिपरिहीनाः ] अमूर्त छे, [ पुद्गलद्रव्यं मूर्तं ] पुद्गलद्रव्य मूर्त छे. [ तेषु ] तेमां [ जीवः ] जीव [ खलु ] खरेखर [ चेतनः ] चेतन छे.
टीकाः — अहीं द्रव्योनुं मूर्तामूर्तपणुं ( – मूर्तपणुं अथवा अमूर्तपणुं) अने चेतना- चेतनपणुं ( – चेतनपणुं अथवा अचेतनपणुं) कहेवामां आव्युं छे.
स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो सद्भाव जेनो स्वभाव छे ते मूर्त छे; स्पर्श-रस-गंध-वर्णनो अभाव जेनो स्वभाव छे ते अमूर्त छे. चैतन्यनो सद्भाव जेनो स्वभाव छे ते चेतन छे; चैतन्यनो अभाव जेनो स्वभाव छे ते अचेतन छे. त्यां, आकाश अमूर्त छे, काळ अमूर्त छे, जीव स्वरूपे अमूर्त छे, पररूपमां २प्रवेश द्वारा ( – मूर्त द्रव्यना संयोगनी अपेक्षाए)
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१. चूलिका=शास्त्रमां नहि कहेवाई गयेलानुं व्याख्यान करवुं अथवा कहेवाई गयेलानुं विशेष व्याख्यान करवुं अथवा बन्नेनुं यथायोग्य व्याख्यान करवुं ते.
२. जीव निश्चये अमूर्त-अखंड-एकप्रतिभासमय होवाथी अमूर्त छे, रागादिरहित सहजानंद जेनो एक
स्वभाव छे एवा आत्मतत्त्वनी भावनारहित जीव वडे उपार्जित जे मूर्त कर्म तेना संसर्ग द्वारा
व्यवहारे मूर्त पण छे.