पुद्गल एवैक इति । अचेतनमाकाशं, अचेतनः कालः, अचेतनो धर्मः, अचेतनोऽधर्मः, अचेतनः पुद्गलः, चेतनो जीव एवैक इति ।।९७।। जीवा पोग्गलकाया सह सक्किरिया हवंति ण य सेसा ।
अत्र सक्रियनिष्क्रियत्वमुक्त म् ।
प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया । तत्र सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन
सहभूताः जीवाः, सक्रिया बहिरङ्गसाधनेन सहभूताः पुद्गलाः । निष्क्रियमाकाशं, निष्क्रियो
धर्मः, निष्क्रियोऽधर्मः, निष्क्रियः कालः । जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं
मूर्त पण छे, धर्म अमूर्त छे, अधर्म अमूर्त छे; पुद्गल ज एक मूर्त छे. आकाश अचेतन छे, काळ अचेतन छे, धर्म अचेतन छे, अधर्म अचेतन छे, पुद्गल अचेतन छे; जीव ज एक चेतन छे. ९७.
अन्वयार्थः — [ सह जीवाः पुद्गलकायाः ] बाह्य करण सहित रहेला जीवो अने पुद्गलो [ सक्रियाः भवन्ति ] सक्रिय छे, [ न च शेषाः ] बाकीनां द्रव्यो सक्रिय नथी ( – निष्क्रिय छे); [ जीवाः ] जीवो [ पुद्गलकरणाः ] पुद्गलकरणवाळा ( – जेमने सक्रियपणामां पुद्गल बहिरंग साधन होय एवा) छे [ स्कन्धाः खलु कालकरणाः तु ] अने स्कंधो अर्थात् पुद्गलो तो काळकरणवाळा ( – जेमने सक्रियपणामां काळ बहिरंग साधन होय एवा) छे.
टीकाः — अहीं (द्रव्योनुं) सक्रिय-निष्क्रियपणुं कहेवामां आव्युं छे.
प्रदेशांतरप्राप्तिनो हेतु ( – अन्य प्रदेशनी प्राप्तिनुं कारण) एवो जे परिस्पंदरूप पर्याय, ते क्रिया छे. त्यां, बहिरंग साधन साथे रहेला जीवो सक्रिय छे; बहिरंग साधन साथे रहेला पुद्गलो सक्रिय छे. आकाश निष्क्रिय छे; धर्म निष्क्रिय छे; अधर्म निष्क्रिय छे; काळ निष्क्रिय छे.