निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति । तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकालः सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्, नित्यो निश्चयकालः स्वगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वर्दैवाविनश्वरत्वादिति ।।१००।।
नित्यक्षणिकत्वेन कालविभागख्यापनमेतत् ।
यो हि द्रव्यविशेषः ‘अयं कालः, अयं कालः’ इति सदा व्यपदिश्यते स खलु स्वस्य सद्भावमावेदयन् भवति नित्यः । यस्तु पुनरुत्पन्नमात्र एव प्रध्वंस्यते स खलु तस्यैव अन्यथा अनुपपत्ति वडे (अर्थात् जीव-पुद्गलोना परिणाम बीजी रीते नहि बनी शकता होवाथी) नक्की थाय छे.
त्यां, व्यवहारकाळ *क्षणभंगी छे, कारण के सूक्ष्म पर्याय एवडो ज मात्र ( – क्षणमात्र जेवडो ज, समयमात्र जेवडो ज) छे; निश्चयकाळ नित्य छे, कारण के ते पोताना गुण-पर्यायोना आधारभूत द्रव्यपणे सदाय अविनाशी छे. १००.
अन्वयार्थः — [ कालः इति च व्यपदेशः ] ‘काळ’ एवो व्यपदेश [ सद्भावप्ररूपकः ] सद्भावनो प्ररूपक छे तेथी [ नित्यः भवति ] काळ (निश्चयकाळ) नित्य छे. [ उत्पन्नध्वंसी अपरः ] उत्पन्नध्वंसी एवो जे बीजो काळ (अर्थात् उत्पन्न थतां वेंत ज नष्ट थनारो जे व्यवहारकाळ) ते [ दीर्घान्तरस्थायी ] (क्षणिक होवा छतां प्रवाहअपेक्षाए) दीर्घ स्थितिनो पण (कहेवाय) छे.
टीकाः — काळना ‘नित्य’ अने ‘क्षणिक’ एवा बे विभागनुं आ कथन छे.
‘आ काळ छे, आ काळ छे’ एम करीने जे द्रव्यविशेषनो सदा व्यपदेश (निर्देश, कथन) करवामां आवे छे, ते (द्रव्यविशेष अर्थात् निश्चयकाळरूप खास द्रव्य) खरेखर पोताना सद्भावने जाहेर करतुं थकुं नित्य छे; अने जे उत्पन्न थतां वेंत ज नष्ट थाय
*क्षणभंगी=क्षणे क्षणे नाश पामनारो; प्रतिसमय जेनो ध्वंस थाय छे एवो; क्षणभंगुर; क्षणिक.