Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 103.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१४९

भवन्ति, तथा कालोऽपि इत्येवं षड्द्रव्याणि किन्तु यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां द्वयादिप्रदेशलक्षणत्वमस्ति अस्तिकायत्वं, न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेक- प्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम् अत एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपर्यायत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानद्रव्यत्वेना- त्रैवान्तर्भावितः ।।१०२।।

इति कालद्रव्यव्याख्यानं समाप्तम्
एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता
जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ।।१०३।।

सद्भाव होवाथी) ‘द्रव्यसंज्ञाने पामे छे. ए प्रमाणे छ द्रव्यो छे. परंतु जेम जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म अने आकाशने द्वि-आदि प्रदेशो जेनुं लक्षण छे एवुं अस्तिकायपणुं छे, तेम काळाणुओनेजोके तेमनी संख्या लोकाकाशना प्रदेशो जेटली (असंख्य) छे तोपण एकप्रदेशीपणाने लीधे अस्तिकायपणुं नथी. अने आम होवाथी ज (अर्थात् काळ अस्तिकाय नहि होवाथी ज) अहीं पंचास्तिकायना प्रकरणमां मुख्यपणे काळनुं कथन करवामां आव्युं नथी; (परंतु) जीव-पुद्गलोना परिणाम द्वारा जे जणाय छेमपाय छे एवा तेना पर्याय होवाथी तथा जीव-पुद्गलोना परिणामनी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जेनुं अनुमान थाय छे एवुं ते द्रव्य होवाथी तेने अहीं अंतर्भूत करवामां आव्यो छे. १०२.

आ रीते काळद्रव्यनुं व्याख्यान समाप्त थयुं.
ए रीत प्रवचनसाररूप ‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकळदुखमोक्षने. १०३.

१. द्वि-आदि=बे अथवा वधारे; बेथी मांडीने अनंत पर्यंत.

२. अंतर्भूत करवुं=अंदर समावी लेवुं; समाविष्ट करवुं; समावेश करवो. [आ ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामना शास्त्रमां काळनुं मुख्यपणे वर्णन नथी, पांच अस्तिकायोनुं मुख्यपणे वर्णन छे. त्यां जीवास्तिकाय
अने पुद्गलास्तिकायना परिणामोनुं वर्णन करतां, ते परिणामो द्वारा जेना परिणामो जणाय छे
मपाय छे ते पदार्थने (काळने) तथा ते परिणामोनी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जेनुं अनुमान थाय छे ते पदार्थने (काळने) गौणपणे वर्णववो उचित छे एम गणीने अहीं पंचास्तिकायप्रकरणनी अंदर गौणपणे काळना वर्णननो समावेश करवामां आव्यो छे.]