Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 104.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
१५१

समारोपितस्वरूपविकारं तदात्वेऽनुभूयमानमवलोक्य तत्कालोन्मीलितविवेकज्योतिः कर्मबन्ध- सन्ततिप्रवर्तिकां रागद्वेषपरिणतिमत्यस्यति, स खलु जीर्यमाणस्नेहो जघन्यस्नेहगुणाभिमुख- परमाणुवद्भाविबन्धपराङ्मुखः पूर्वबन्धात्प्रच्यवमानः शिखितप्तोदकदौस्थ्यानुकारिणो दुःखस्य परिमोक्षं विगाहत इति ।।१०३।।

मुणिऊण एतदट्ठं तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो
पसमियरागद्दोसो हवदि हदपरापरो जीवो ।।१०४।।

जेनामां स्वरूपविकार आरोपायेलो छे एवो पोताने (निज आत्माने) ते काळे अनुभवातो अवलोकीने, ते काळे विवेकज्योति प्रगट होवाथी (अर्थात् अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावनुं अने विकारनुं भेदज्ञान ते काळे ज प्रगट वर्ततुं होवाथी) कर्मबंधनी परंपराने प्रवर्तावनारी रागद्वेषपरिणतिने छोडे छे, ते पुरुष, खरेखर जेने स्नेह जीर्ण थतो जाय छे एवो, जघन्य स्नेहगुणनी संमुख वर्तता परमाणुनी माफक भावी बंधथी पराङ्मुख वर्ततो थको, पूर्व बंधथी छूटतो थको, अग्नितप्त जळनी दुःस्थिति समान जे दुःख तेनाथी परिमुक्त थाय छे. १०३.

आ अर्थ जाणी, अनुगमन-उद्यम करी, हणी मोहने,
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर-पूरव विरहित बने. १०४.

१. स्वरूपविकार=स्वरूपनो विकार. [स्वरूप बे प्रकारे छेः () द्रव्यार्थिक नयना विषयभूत स्वरूप, अने () पर्यायार्थिक नयना विषयभूत स्वरूप. जीवमां जे विकार थाय छे ते पर्यायार्थिक नयना विषयभूत स्वरूपने विषे थाय छे, द्रव्यार्थिक नयना विषयभूत स्वरूपने विषे नहि; ते (द्रव्यार्थिक नयना विषयभूत) स्वरूप तो सदाय अत्यंत विशुद्ध चैतन्यात्मक छे.]

२. आरोपायेलो=(नवो अर्थात् औपाधिकरूपे) करायेलो. [स्फटिकमणिमां औपाधिकरूपे थती रंगित दशानी माफक जीवमां औपाधिकरूपे विकारपर्याय थतो कदाचित् अनुभवाय छे.]

३. स्नेह=रागादिरूप चीकाश

४. स्नेह=स्पर्शगुणना पर्यायरूप चीकाश. [जेम जघन्य चीकाशनी संमुख वर्ततो परमाणु भावी बंधथी पराङ्मुख छे, तेम जेने रागादि जीर्ण थता जाय छे एवो पुरुष भावी बंधथी पराङ्मुख छे.]

५. दुःस्थिति=अशांत स्थिति (अर्थात् तळे-उपर थवुं ते, खदखद थवुं ते); अस्थिरता; खराबकफोडी स्थिति. [जेम अग्नितप्त जळ खदखद थाय छे, तळेउपर थया करे छे, तेम दुःख आकुळतामय छे.]