अन्वयार्थः — [ तेषु ] तेमां, [ त्रयः ] त्रण (पृथ्वीकायिक, अप्कायिक ने वनस्पति- कायिक) जीवो [ स्थावरतनुयोगाः ] स्थावर शरीरना संयोगवाळा छे [ च ] तथा [ अनिलानलकायिकाः ] वायुकायिक ने अग्निकायिक जीवो [ त्रसाः ] २त्रस छे; [ मनःपरिणामविरहिताः ] ते बधा मनपरिणामरहित [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेंद्रिय जीवो [ ज्ञेयाः ] जाणवा. १११.
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१. स्पर्शोपलब्धि=स्पर्शनी उपलब्धि; स्पर्शनुं ज्ञान; स्पर्शनो अनुभव. [पृथ्वीकायिक वगेरे जीवोने
स्पर्शनेंद्रियावरणनो ( – भावस्पर्शनेंद्रियना आवरणनो) क्षयोपशम होय छे अने ते ते कायो बाह्य
स्पर्शनेंद्रियनी रचनारूप होय छे, तेथी ते ते कायो ते ते जीवोने स्पर्शनी उपलब्धिमां निमित्तभूत
थाय छे. ते जीवोने थती ते स्पर्शोपलब्धि प्रबळ मोह सहित ज होय छे, कारण के ते जीवो
कर्मफळचेतनाप्रधान होय छे.]
२. वायुकायिक अने अग्निकायिक जीवोने चलनक्रिया देखीने व्यवहारथी त्रस कहेवामां आवे छे; निश्चयथी तो तेओ पण स्थावरनामकर्माधीनपणाने लीधे — जोके तेमने व्यवहारथी चलन छे तोपण — स्थावर ज छे.