Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 111-112.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
त्वान्मोहबहुलमेव स्पर्शोपलम्भं सम्पादयन्तीति ।।११०।।
ति त्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा
मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया ।।१११।।
त्रयः स्थावरतनुयोगा अनिलानलकायिकाश्च तेषु त्रसाः
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः ।।१११।।
एदे जीवणिकाया पंचविधा पुढविकाइयादीया
मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ।।११२।।
पुष्कळ मोह सहित ज स्पर्शोपलब्धि संप्राप्त करावे छे. ११०.
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि-समीरना;
ए सर्व मनपरिणामविरहित एक-इन्द्रिय जाणवा. १११.

अन्वयार्थ[ तेषु ] तेमां, [ त्रयः ] त्रण (पृथ्वीकायिक, अप्कायिक ने वनस्पति- कायिक) जीवो [ स्थावरतनुयोगाः ] स्थावर शरीरना संयोगवाळा छे [ च ] तथा [ अनिलानलकायिकाः ] वायुकायिक ने अग्निकायिक जीवो [ त्रसाः ] त्रस छे; [ मनःपरिणामविरहिताः ] ते बधा मनपरिणामरहित [ एकेन्द्रियाः जीवाः ] एकेंद्रिय जीवो [ ज्ञेयाः ] जाणवा. १११.

आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पांच प्रकारना,
सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेंद्रिय कह्या. ११२.

१६२

१. स्पर्शोपलब्धि=स्पर्शनी उपलब्धि; स्पर्शनुं ज्ञान; स्पर्शनो अनुभव. [पृथ्वीकायिक वगेरे जीवोने स्पर्शनेंद्रियावरणनो (भावस्पर्शनेंद्रियना आवरणनो) क्षयोपशम होय छे अने ते ते कायो बाह्य स्पर्शनेंद्रियनी रचनारूप होय छे, तेथी ते ते कायो ते ते जीवोने स्पर्शनी उपलब्धिमां निमित्तभूत
थाय छे. ते जीवोने थती ते स्पर्शोपलब्धि प्रबळ मोह सहित ज होय छे, कारण के ते जीवो
कर्मफळचेतनाप्रधान होय छे.
]

२. वायुकायिक अने अग्निकायिक जीवोने चलनक्रिया देखीने व्यवहारथी त्रस कहेवामां आवे छे; निश्चयथी तो तेओ पण स्थावरनामकर्माधीनपणाने लीधेजोके तेमने व्यवहारथी चलन छे तोपणस्थावर ज छे.