Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 114.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अण्डान्तर्लीनानां, गर्भस्थानां, मूर्च्छितानां च बुद्धिपूर्वकव्यापारादर्शनेऽपि येन प्रकारेण जीवत्वं निश्चीयते, तेन प्रकारेणैकेन्द्रियाणामपि, उभयेषामपि बुद्धिपूर्वकव्यापारा- दर्शनस्य समानत्वादिति ।।११३।।

संबुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी
जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा ।।११४।।
शम्बूकमातृवाहाः शङ्खाः शुक्त योऽपादकाः च कृमयः
जानन्ति रसं स्पर्शं ये ते द्वीन्द्रियाः जीवाः ।।११४।।

द्वीन्द्रियप्रकारसूचनेयम्

इंडांनी अंदर रहेलां, गर्भमां रहेलां अने मूर्छा पामेलां (प्राणीओ)ना जीवत्वनो, तेमने बुद्धिपूर्वक व्यापार नहि जोवामां आवतो होवा छतां, जे प्रकारे निश्चय कराय छे, ते प्रकारे एकेन्द्रियोना जीवत्वनो पण निश्चय कराय छे; कारण के बंनेमां बुद्धिपूर्वक व्यापारनुं

भावार्थजेम गर्भस्थादि प्राणीओमां, ईहापूर्वक व्यवहारनो अभाव होवा छतां, जीवत्व छे ज, तेम एकेन्द्रियोमां पण, ईहापूर्वक व्यवहारनो अभाव होवा छतां, जीवत्व छे ज एम आगम, अनुमान इत्यादिथी नक्की करी शकाय छे.

अहीं एम तात्पर्य ग्रहवुं केजीव परमार्थे स्वाधीन अनंत ज्ञान अने सौख्य सहित होवा छतां अज्ञान वडे पराधीन इन्द्रियसुखमां आसक्त थईने जे कर्म बांधे छे तेना निमित्ते पोताने एकेन्द्रिय अने दुःखी करे छे. ११३.

शंबूक, छीपो, मातृवाहो, शंख, कृमि पग-वगरना

जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वींद्रिय जाणवा. ११४.

अन्वयार्थ[ शम्बूकमातृवाहाः ] शंबूक, मातृवाह, [ शङ्खाः ] शंख, [ शुक्तयः ] छीप [ च ] अने [ अपादकाः कृमयः ] पग वगरना कृमि[ ये ] के जेओ [ रसं स्पर्शं ] रस अने स्पर्शने [ जानन्ति ] जाणे छे [ ते ] तेओ[ द्वीन्द्रियाः जीवाः ] द्वीन्द्रिय जीवो छे.

टीकाआ, द्वीन्द्रिय जीवोना प्रकारनी सूचना छे.

१६

*अदर्शन समान छे.

*अदर्शन=नहि जोवामां आववुं ते