Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 121.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१७१

उक्त जीवप्रपञ्चोपसंहारोऽयम्

एते ह्युक्त प्रकाराः सर्वे संसारिणो देहप्रवीचाराः, अदेहप्रवीचारा भगवन्तः सिद्धाः शुद्धा जीवाः तत्र देहप्रवीचारत्वादेकप्रकारत्वेऽपि संसारिणो द्विप्रकाराः भव्या अभव्याश्च ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्ति सद्भावासद्भावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयन्त इति १२०।। ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता

जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवेंति ।।१२१।।
न हीन्द्रियाणि जीवाः कायाः पुनः षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः
यद्भवति तेषु ज्ञानं जीव इति च तत्प्ररूपयन्ति ।।१२१।।
च ] भव्य अने अभव्य एम बे प्रकारना छे.

टीकाआ उक्त (पूर्वे कहेवामां आवेला) जीवविस्तारनो उपसंहार छे.

जेमना प्रकारो (पूर्वे) कहेवामां आव्या एवा आ सर्व संसारीओ देहमां वर्तनारा (अर्थात् देहसहित) छे; देहमां नहि वर्तनारा (अर्थात् देहरहित) एवा सिद्धभगवंतो छेके जेओ शुद्ध जीवो छे. त्यां, देहमां वर्तवानी अपेक्षाए संसारी जीवोनो एक प्रकार होवा छतां तेओ भव्य अने अभव्य एम बे प्रकारना छे. ‘पाच्य’ अने ‘अपाच्य’ मगनी माफक, जेमनामां शुद्ध स्वरूपनी उपलब्धिनी शक्तिनो सद्भाव छे तेमने ‘भव्य’ अने जेमनामां शुद्ध स्वरूपनी उपलब्धिनी शक्तिनो असद्भाव छे तेमने ‘अभव्य’ कहेवामां आवे छे. १२०.

रे! इन्द्रियो नहि जीव, षड्विध काय पण नहि जीव छे;
छे तेमनामां ज्ञान जे बस ते ज जीव निर्दिष्ट छे. १२१.

अन्वयार्थ[ न हि इंद्रियाणि जीवाः ] (व्यवहारथी कहेवामां आवता एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि ‘जीवो’मां) इन्द्रियो जीव नथी अने [ षट्प्रकाराः प्रज्ञप्ताः कायाः पुनः ] छ प्रकारनी शास्त्रोक्त कायो पण जीव नथी; [ तेषु ] तेमनामां [ यद् ज्ञानं

१. पाच्य=पाकवायोग्य; रंधावायोग्य; चडी जवायोग्य; कोरडु न होय एवा.

२. अपाच्य=नहि पाकवायोग्य; रंधावानीचडी जवानी योग्यता रहित; कोरडु.

३. उपलब्धि=प्राप्ति; अनुभव.