अन्यासाधारणजीवकार्यख्यापनमेतत् ।
चैतन्यस्वभावत्वात्कर्तृस्थायाः क्रियायाः ज्ञप्तेद्रर्शेश्च जीव एव कर्ता, न तत्सम्बन्धः
पुद्गलो, यथाकाशादि । सुखाभिलाषक्रियायाः दुःखोद्वेगक्रियायाः स्वसम्वेदितहिताहित-
निर्वर्तनक्रियायाश्च चैतन्यविवर्तरूपसङ्कल्पप्रभवत्वात्स एव कर्ता, नान्यः । शुभाशुभ-
कर्मफलभूताया इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियायाश्च सुखदुःखस्वरूपस्वपरिणामक्रियाया इव स एव कर्ता, नान्यः । एतेनासाधारणकार्यानुमेयत्वं पुद्गलव्यतिरिक्त स्यात्मनो द्योतितमिति ।।१२२।। करोति ] हित-अहितने (
शुभ-अशुभ भावोने) करे छे [ वा ] अने [ तयोः फलं भुंक्ते ] तेमना फळने भोगवे छे.
टीकाः — आ, अन्यथी असाधारण एवां जीवकार्योनुं कथन छे (अर्थात् अन्य द्रव्योथी असाधारण एवां जे जीवनां कार्यो ते अहीं दर्शाव्यां छे).
चैतन्यस्वभावपणाने लीधे, कर्तृस्थित (कर्तामां रहेली) क्रियानो — ज्ञप्ति तथा द्रशिनो — जीव ज कर्ता छे; तेना संबंधमां रहेलुं पुद्गल तेनुं कर्ता नथी, जेम आकाशादि नथी तेम. (चैतन्यस्वभावने लीधे जाणवानी अने देखवानी क्रियानो जीव ज कर्ता छे; ज्यां जीव छे त्यां चार अरूपी अचेतन द्रव्यो पण छे तोपण तेओ जेम जाणवानी अने देखवानी क्रियानां कर्ता नथी तेम जीवनी साथे संबंधमां रहेलां कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलो पण ते क्रियानां कर्ता नथी.) चैतन्यना विवर्तरूप (-पलटारूप) संकल्पनी उत्पत्ति (जीवमां) थती होवाने लीधे, सुखनी अभिलाषारूप क्रियानो, दुःखना उद्वेगरूप क्रियानो तथा स्वसंवेदित हित-अहितनी निष्पत्तिरूप क्रियानो ( – पोताथी चेतवामां आवता शुभ- अशुभ भावोने रचवारूप क्रियानो) जीव ज कर्ता छे; अन्य नहि. शुभाशुभ कर्मना फळभूत *इष्टानिष्टविषयोपभोगक्रियानो, सुख-दुःखस्वरूप स्वपरिणामक्रियानी माफक, जीव ज कर्ता छे; अन्य नहि.
आथी एम समजाव्युं के (उपरोक्त) असाधारण कार्यो द्वारा पुद्गलथी भिन्न एवो आत्मा अनुमेय ( – अनुमान करी शकावायोग्य) छे.
भावार्थः — शरीर, इन्द्रिय, मन, कर्म वगेरे पुद्गलो के अन्य कोई अचेतन द्रव्यो कदापि जाणतां नथी, देखतां नथी, सुखने इच्छतां नथी, दुःखथी डरतां नथी,
*इष्टानिष्ट विषयो जेमां निमित्तभूत होय छे एवा सुखदुःखपरिणामोना उपभोगरूप क्रियाने जीव
करतो होवाथी तेने इष्टानिष्ट विषयोना उपभोगरूप क्रियानो कर्ता कहेवामां आवे छे.