जीवाजीवव्याख्योपसंहारोपक्षेपसूचनेयम् ।
एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्थप्रतिपादितजीवगुणमार्गणास्थानादिप्रपञ्चित- हित-अहितमां प्रवर्ततां नथी के तेमनां फळने भोगवतां नथी; माटे जे जाणे छे अने देखे छे, सुखनी इच्छा करे छे, दुःखना भयनी लागणी करे छे, शुभ-अशुभ भावोमां प्रवर्ते छे अने तेमनां फळने भोगवे छे, ते, अचेतन पदार्थोनी साथे रह्यो होवा छतां सर्व अचेतन पदार्थोनी क्रियाओथी तद्दन विशिष्ट प्रकारनी क्रियाओने करनारो, एक विशिष्ट पदार्थ छे. आम जीव नामनो चैतन्यस्वभावी पदार्थविशेष — के जेने ज्ञानीओ स्वयं स्पष्ट अनुभवे छे ते — तेनी असाधारण क्रियाओ द्वारा अनुमेय पण छे. १२२.
अन्वयार्थः — [ एवम् ] ए रीते [ अन्यैः अपि बहुकैः पर्यायैः ] बीजा पण बहु पर्यायो वडे [ जीवम् अभिगम्य ] जीवने जाणीने [ ज्ञानान्तरितैः लिङ्गैः ] ज्ञानथी अन्य एवां (जड) लिंगो वडे [ अजीवम् अभिगच्छतु ] अजीवने जाणो.
टीकाः — आ, जीव-व्याख्यानना उपसंहारनी अने अजीव-व्याख्यानना प्रारंभनी सूचना छे.
ए रीते आ निर्देश प्रमाणे (अर्थात् उपर संक्षेपमां समजाव्या प्रमाणे), (१) व्यवहारनयथी १कर्मग्रंथप्रतिपादित जीवस्थान – गुणस्थान – मार्गणास्थान इत्यादि
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१. कर्मग्रंथप्रतिपादित=गोम्मटसारादि कर्मपद्धतिना ग्रंथोमां प्ररूपवामां — निरूपवामां आवेलां