सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुप- लब्धेरविद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति ।।१२५।।
आकाशादिने सुखदुःखनुं ज्ञान, *हितनो उद्यम अने अहितनो भय — ए चैतन्यविशेषोनी सदा अनुपलब्धि छे (अर्थात् ए चैतन्यविशेषो आकाशादिने कोई काळे जोवामां आवता नथी), तेथी (एम नक्की थाय छे के) आकाशादि अजीवोने चैतन्यसामान्य विद्यमान नथी ज.
भावार्थः — जेने चेतनत्वसामान्य होय तेने चेतनत्वविशेषो होवा ज जोईए. जेने चेतनत्वविशेषो न होय तेने चेतनत्वसामान्य पण न ज होय. हवे, आकाशादि पांच द्रव्योने सुखदुःखनुं संचेतन, हित अर्थे प्रयत्न अने अहितनी भीति — ए चेतनत्वविशेषो कदीये जोवामां आवता नथी; तेथी नक्की थाय छे के आकाशादिने चेतनत्वसामान्य पण नथी, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ज छे. १२५.
समजे छे अने सर्प, विष, कंटक वगेरेने अहित समजे छे. सम्यग्ज्ञानी जीवो अक्षय अनंत सुखने तथा तेना कारणभूत निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यने हित समजे छे अने आकुळताना उत्पादक एवा दुःखने तथा तेना कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यने अहित समजे छे. पं. २३
*हित अने अहित विषे आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां नीचे प्रमाणे
विवरण छेः —