अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा ।
प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत् ।
अन्वयार्थः — [ अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः ] अर्हंत-सिद्ध-साधुओ प्रत्ये भक्ति, [ धर्मे या च खलु चेष्टा ] धर्ममां खरेखर चेष्टा [ अनुगमनम् अपि गुरूणाम् ] अने गुरुओनुं अनुगमन, [ प्रशस्तरागः इति ब्रुवन्ति ] ते ‘प्रशस्त राग’ कहेवाय छे.
टीकाः — आ, प्रशस्त रागना स्वरूपनुं कथन छे.
१अर्हंत - सिद्ध - साधुओ प्रत्ये भक्ति, धर्ममां — व्यवहारचारित्रना
१. अर्हंत-सिद्ध-साधुओमां अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु पांचेय समाई जाय छे [कारण के ‘साधुओ’मां आचार्य, उपाध्याय अने साधु त्रण समाय छे].
[निर्दोष परमात्माथी प्रतिपक्षभूत एवां आर्त-रौद्रध्यानो वडे उपार्जित जे ज्ञानावरणीयादि प्रकृतिओ तेमनो, रागादिविकल्परहित धर्म-शुकलध्यानो वडे विनाश करीने, जेओ क्षुधादि अढार दोष रहित अने केवळज्ञानादि अनंत चतुष्टय सहित थया, तेओ अर्हंतो कहेवाय छे.
लौकिक अंजनसिद्ध वगेरेथी विलक्षण एवा जेओ ज्ञानावरणीयादि-अष्टकर्मना अभावथी सम्यक्त्वादि-अष्टगुणात्मक छे अने लोकाग्रे वसे छे, तेओ सिद्धो छे.
विशुद्ध ज्ञानदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा आत्मतत्त्वनी निश्चयरुचि, तेवी ज ज्ञप्ति, तेवी ज निश्चळ-अनुभूति, परद्रव्यनी इच्छाना परिहारपूर्वक ते ज आत्मद्रव्यमां प्रतपन अर्थात् तपश्चरण अने स्वशक्तिने गोपव्या विना तेवुं ज अनुष्ठान — आवा निश्चयपंचाचारने तथा तेना साधक व्यवहार- पंचाचारने — के जेनी विधि आचारादिशास्त्रोमां कही छे तेने — एटले के उभय आचारने जेओ पोते आचरे छे अने बीजाओने अचरावे छे, तेओ आचार्यो छे.
पांच अस्तिकायोमां शुद्धजीवास्तिकायने, छ द्रव्योमां शुद्धजीवद्रव्यने, सात तत्त्वोमां शुद्धजीवतत्त्वने