Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 136.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
१८९

अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा

अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति वुच्चंति ।।१३६।।
अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति र्धर्मे या च खलु चेष्टा
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति ।।१३६।।

प्रशस्तरागस्वरूपाख्यानमेतत

अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्ति :, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा,
अर्हंत-साधु-सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां,
गुरुओ तणुं अनुगमनए परिणाम राग प्रशस्तना. १३६.

अन्वयार्थः[ अर्हत्सिद्धसाधुषु भक्तिः ] अर्हंत-सिद्ध-साधुओ प्रत्ये भक्ति, [ धर्मे या च खलु चेष्टा ] धर्ममां खरेखर चेष्टा [ अनुगमनम् अपि गुरूणाम् ] अने गुरुओनुं अनुगमन, [ प्रशस्तरागः इति ब्रुवन्ति ] ते ‘प्रशस्त राग’ कहेवाय छे.

टीकाःआ, प्रशस्त रागना स्वरूपनुं कथन छे.

अर्हंत - सिद्ध - साधुओ प्रत्ये भक्ति, धर्ममांव्यवहारचारित्रना

१. अर्हंत-सिद्ध-साधुओमां अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु पांचेय समाई जाय छे [कारण के ‘साधुओ’मां आचार्य, उपाध्याय अने साधु त्रण समाय छे].

[निर्दोष परमात्माथी प्रतिपक्षभूत एवां आर्त-रौद्रध्यानो वडे उपार्जित जे ज्ञानावरणीयादि प्रकृतिओ तेमनो, रागादिविकल्परहित धर्म-शुकलध्यानो वडे विनाश करीने, जेओ क्षुधादि अढार दोष रहित अने केवळज्ञानादि अनंत चतुष्टय सहित थया, तेओ अर्हंतो कहेवाय छे.

लौकिक अंजनसिद्ध वगेरेथी विलक्षण एवा जेओ ज्ञानावरणीयादि-अष्टकर्मना अभावथी सम्यक्त्वादि-अष्टगुणात्मक छे अने लोकाग्रे वसे छे, तेओ सिद्धो छे.

विशुद्ध ज्ञानदर्शन जेनो स्वभाव छे एवा आत्मतत्त्वनी निश्चयरुचि, तेवी ज ज्ञप्ति, तेवी ज निश्चळ-अनुभूति, परद्रव्यनी इच्छाना परिहारपूर्वक ते ज आत्मद्रव्यमां प्रतपन अर्थात् तपश्चरण अने स्वशक्तिने गोपव्या विना तेवुं ज अनुष्ठानआवा निश्चयपंचाचारने तथा तेना साधक व्यवहार- पंचाचारनेके जेनी विधि आचारादिशास्त्रोमां कही छे तेनेएटले के उभय आचारने जेओ पोते आचरे छे अने बीजाओने अचरावे छे, तेओ आचार्यो छे.

पांच अस्तिकायोमां शुद्धजीवास्तिकायने, छ द्रव्योमां शुद्धजीवद्रव्यने, सात तत्त्वोमां शुद्धजीवतत्त्वने